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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। सुख १२ श्लोकमें व्याख्या की गई है। दुःख-दुः= कलुषित, ख=आकाश; वासना रहनेसे ही अन्तराकाश आवरणशक्ति करके ढक जाता है, तब अभावपूर्ण शून्यमय अंधियारी से भरी हुई एक अवस्था अाती है; सुन्दर जो आत्मज्योति है, उसकी रेखा मात्रका भी दर्शन नहीं मिलता, प्राण आय चाय करता है, मन व्याकुल होता है, वही दुःख है। सुख-दुःख लाभ-अलाभ, जयपराजय समान करके अर्थात् "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः” होकरके, युद्ध के लिये ही (गुरु कहते हैं बोल करके ) युद्ध करता हूँ, इस प्रकारसे फलाकांचा छोड़ देके कर्तव्य ज्ञान करके युद्ध अर्थात् प्रवृत्ति-निग्रहमें यत्न करो। ऐसा करनेसे और तुमका पाप (चंचलता, जिसमें साधकको अवश करके स्थान और लक्ष्य भ्रष्ट होना पड़ता है) स्पर्श न करेगा अर्थात् कर्म-अकर्म-विकर्म जिसमें रहोगे निरन्तर ब्राह्मीस्थिति पावोगे॥ ३८ ॥
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु। बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्ध प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
अन्वयः हे पार्थ! सांख्ये ( परमार्थ वस्तु विवेक विषये ) एषा बुद्धिः ते (तुभ्यं ) अभिहिता ( कथिता )3 योगे तु ( कर्मयोगेतु ) इमां बुद्धिं शृणु यया बुद्धया युक्तः ( सन् ) कर्मबन्धं प्रहास्यसि ( प्रकर्षेण त्यक्ष्यसि ) ॥ ३९ ॥
अनुवाद। हे पार्थ ! मैंने सांख्यमत सिद्ध यह ज्ञान तुमसे कहा, अब योगमत करके इस ज्ञान का विषय कहता हूं श्रवण करो, जिस ज्ञानमें युक्त होनेसे तुम कर्म बन्धनको परित्याग कर सकोगे।। ३९ ॥
व्याख्या। साधक ! यह जो निश्चय करने वालो बुद्धि तुमसे कही गई, वही सांख्यका मत है; किन्तु योगका मतमें वह बुद्धि किस प्रकार होती है, सुनो,-जिसके युक्त होनेसे तुम सम्पूर्ण रूपसे कर्म बन्धनको त्याग कर सकोगे।