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द्वितीय अध्याय
६१ सांख्य क्या ? संख्या द्वारा वस्तुत्व निरूपण कर लेनेका नाम सांख्य है। इसमें प्राकृतिक २४ तत्त्व और पुरुष एक, ये २५ पदार्थकी गणना करके विश्वकोषकी सत्त्वा समझी जाती है;- यह अनुमान.
और अनुभवसिद्ध* समष्टि ज्ञान है, इसलिये सांख्य शब्दमें ज्ञानको समझाते हैं। और योग ? एकको और एक वस्तुके साथ मिला कर तदाकार कर देनेका नाम योग है; यह योग सम्पूर्ण अनुष्ठानसिद्ध है। जैसे पृथिवी-तत्त्वको लय करके रस-तत्त्वमें मिला कर एक करना योग है, रसको ऐसे ही तेजके साथ मिलाना योग है, तद्वत् देज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश तन्मात्रामें, तन्मात्रा मनमें, मन बुद्धिमें, बुद्धि अहंकारमें, अहंकार महत्त्वत्त्वमें वा चित्तमें चित्त अव्यक्त वा मूल प्रकृतिमें, सबके पश्चात् प्रकृतिको पुरुषमें मिला देनेका नाम योग है। किन्तु पूर्व पूर्व योग शेष योगके क्रम बिना और कुछ नहीं है, इसलिये उस क्रमका नाम योगमार्ग तथा क्रमकी परिसमाप्तिका नाम योग है। साधक यह योग प्राप्त होनेसे ही योगी, और नीचेके स्तरमें रहनेसे ही योगाभ्यासी हैं। योगी हो करके योगावस्था छोड़के नीचे वाले स्तर में उतर आनेसे जो ज्ञान होता है, वह भी सांख्य है। अतएव योगका प्रथम भी सांख्य शेष भी सांख्य, योगका मूल भी सांख्य, फल भी सांख्य है। जो मूल है, वह सम्पूर्ण आनुमानिक वा उपदेश प्राप्त ज्ञान-“सांख्य-योग”; और जो फल है, वह योगका प्रानुष्ठानिक ज्ञान "मोक्ष-योग” है;-यही इसमें पृथकता, नहीं तो एकही है।
२४ । २५ श्लोक में जो जो प्रकाश हुआ है, वही सांख्य मतकी बुद्धि वा ज्ञान है; इसमें पृथिवीसे आत्मा पर्य्यन्त समुदयकी सत्त्वा प्रत्यक्ष होती रहती है। किन्तु योगमें जो ज्ञान होता है उसमें नीचे वाले स्तर समूहका लय होता चला आता है, जिससे नीचे वाला ज्ञान एक
* अनुसूक्ष्म, भव-होना; ज्ञातव्य के साथ तदाकारत्व प्राप्ति ॥ ३९