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द्वितीय अध्याय सम्पन्न होनेके कारण वह शरीर हत होनेसे भी हत नहीं होता। शरीरका नाम कोष है; कोष पांच हैं, अन्ममय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय । प्रथम वाले स्थूल, द्वितीय, तृतीय,
और चतुर्थ वाले सूक्ष्म, एवं पंचम अर्थात् शेष वाले कारण शरीर हैं। एकके नष्ट होनेसे, वह लय योग करके सूक्ष्मत्व लेके दूसरेमें परिणत हो करके, अन्तमें "सर्वलय होनेके पश्चात्" सत् सत्त्वामें मिलता है; जैसे "जलका बिम्ब जलमें उदय होकर, उस जलमें ही मिल जाता है" ॥ २० ॥
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पाथ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
अन्वयः हे पार्थ! यः एनं ( आत्मानं ) अजं अव्ययं नित्यं अविनाशिनं वेद, सः पुरुषः कथं कं घातयति, कं हन्ति ? ॥ २१॥
अनुवाद। हे पार्थ । जो आत्माको जन्मरहित, क्षयरहित, नित्य तथा अविनाशि जानते हैं, वह पुरुष किस प्रकारसे किसके हाथ किसका हनन करावेंगे, और किस रूपसे किसको हनन करेंगे? ॥२१॥
व्याख्या। जो (क्रिया विशेषका अनुष्ठान करके ) आत्माको अविनाशि, नित्य, अज, एबं अव्यय (क्षय-शून्य ) जानते हैं (प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ), वह पुरुषको अर्थात् “अव्यक्तात् परः" जो परागति है, उसको ही प्राप्त होते हैं। तिनमें (सबहीके एक हो जानेके कारण ) किसीके हाथ किसीको वध करानेकी वा वध करनेकी युक्ति दिखाई नहीं देती ; क्योंकि करने धरने वाला कोई रहता नहीं ॥ २१ ॥