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द्वितीय अध्याय वाष्पीय मीन प्रकार आकार करके तीन प्रकार नाम होनेसे भी वस्तु एक ही एक रहता है, केवल अवस्था भेद करके नाम-भेद हो जाता है। तद्रप जीव, माया, ब्रह्म एक आत्माकी ही अवस्था और नामका भेदमात्र। इसलिये किसी स्थानसे आत्माको हटा कर आत्माशून्य किया नहीं जाता, सदैव प्रात्मा परिपूर्ण रहता है। इसलिये आत्मा अव्यय अर्थात् व्ययविहीन है। अतएव ऐसे अक्षयको, किस रीतिसे क्षय करोगे ॥ १७॥
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद् युध्यस्व भारत ।। १८ ।। अन्वयः। अनाशिनः अप्रमेयस्य नित्यस्य शरीरिणः ( आत्मनः ) इमे देहाः अंततः ( नश्वराः ) उकाः; हे भारत । तस्मात् युध्यस्व ।। १८॥
अनुवाद। अविनाशी, अप्रमेय, नित्य, आत्माके ये समस्त देह अनित्य (विनाशशील ) कहे जाते हैं । अतएव हे भारत ! तुम युद्ध करो ॥ १८ ॥
व्याख्या। पूर्व दो श्लोकमें वृहत् ब्रह्माण्डकी बात कह करके, अब शरीर-शरीरि अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्डकी बात विशेष करके कही जाती है। इन दोनों ब्रह्माण्डके सम्बन्धमें यदि कहना हो तो कहा जाता है कि जसे जलराशिमें वायुके संयोगसे अनन्त तरंग-फेन-बुबुद् हो करके ( जो जल उसी वायुके ही स्थूल आकारके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं) बहुत क्षणके बाद (वायुका प्रशमन करके ) शान्त हो जाता है, उसका जलीयांश जलमें, वायुका अंश वायुमें जाता है, दृष्टिका धोखा उत्ताल-तरंग रहता नहीं, विषमता-शून्य बराबर समान रहता है, ठीक वैसे इस ब्रह्माण्डमें चैतन्य संयोग करके प्रत्येक शरीर उत्पन्न एवं पश्चात् (चैतन्यवियोग करके विनष्ट होता है। शरीरी अर्थात् चैतन्य अनन्त एवं उपमा-रहित; और यह शरीर मायाके विकार होनेके कारण परिवर्तनशील (अन्तवन्त ) तथा अनित्य है; यही