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द्वितीय अध्याय नित्य, सर्वगत, स्थाणु ( स्थिर स्वभाव ), अचल ( सदा एकरूप ) एवं सनातन ( अनादि ) है ॥ २३ ॥ २४ ॥
व्याख्या। मायिक विकारसे उत्पन्न हुआ भूत समूह निर्विकारके ऊपर किसी शक्तिका प्रयोग कर नहीं सकता। अस्त्र-शस्त्र, अग्नि, जल, वायु-ये समस्त प्रकृति, प्रकृति-विकृति, और विकार हैं। इसलिये आत्माको अस्त्र-शस्त्रसे टुकड़े टुकड़े करना, अग्निसे जलाना, जलसे भिगोना, वायुसे शोषण करना हो नहीं सकता; इसी कारण यह (आत्मा) अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य तथा अशोष्य है। आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, ठूठे वृक्ष सरिस अटल, अचल, एवं अनादि है ॥ २३ ॥ २४ ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तष्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५॥ . अन्वयः। अयम् अव्यक्तः अयम् अचिन्त्यः अयम् अविकाय्य उच्यते तस्मात् एनं एवं ( यथोकप्रकारेण ) विदित्वा अनुशोचितुन अर्हसि ॥ २५॥ .
अनुवाद। यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य तथा अधिकार्य कहा जाता है। अतएव इसका स्वरूप जानकर निश्चय ही तुम्हारा शोक करना उचित नहीं ॥ २५॥
व्याख्या। २३ श्लोकमें कहा हुआ है कि-आत्मा, पृथ्वी, अग्नि तथा वायुसे स्पृष्ट-(स्पशंदोष सम्पन्न ) होता नहीं। फिर इस श्लोकमें कहा जाता है कि-आकाश भो आत्माको छू नहीं सकता, क्योंकि आत्मा-'अव्यक्त' अर्थात् अति सूक्ष्म होनेके कारण शब्दसे भी अप्रकाश्य हैं; अन्तःकरण इनको धारण कर नहीं सकता, क्योंकि यह "अचिन्त्य” अर्थात् चिन्ताके भी विषय नहीं हैं, यह "अविकार्य" अर्थात् मायातीत ( विकार मायामें ही है, आत्मामें नहीं, जैसे
आकाशमें मट्टीका प्रलेप)। इन अवस्था-समूहका तुमने आनुष्ठानिक अनुभव करके अर्थात् कूटस्थके उपर उठ करके निजबोध द्वारा जान