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श्रीमद्भगवद्गीता ___ अन्वयः। कश्चित् एनं आश्चर्यवत् पश्यति, तथा एव च अन्यः आश्चर्यवत् बदति, अन्यश्च एनं आश्चर्यवत् शृणोति, कश्चित् श्रुत्वा अपि एनं न च एष वेद ॥ २९॥
अनुवाद। कोई कोई इसको (प्रोक्तविषयोंको ) आश्चर्य सरिस देखते हैं; कोई कोई आश्वयंवत् इसको कहते हैं, कोई कोई इसको आश्चर्य हो करके श्रवण करते हैं, फिर कोई कोई श्रवण करके भी इसको जान ( समझ ) नहीं सकते ॥ २९ ॥
व्याख्या। साधक ! जिस रोज सद्गुरुकी कृपासे तुमने अपनेको प्रथम दर्शन किया था, उस दिन तुमने आप ही आप मनमें आश्चर्य (जो नहीं जानते हैं वहीं आश्चर्य है ) मान लिया था कि नहीं ? उस अपरूप रूपकी बात जब तुमने वाणीमें कहने की चेष्टा पाई थी, उस रूपको प्रकाश करने वाली भाषा न पा करके, व्यक्त करने में अशक्त हो करके, आपही आप तुमने अपनेको आश्चर्य में पाया था कि नहीं? फिर स्मरण करो-उसी प्रणवके गर्भमें नाद, नादके गर्भमें बिन्दु, उसी अर्द्धनारीश्वर बिन्दुसे ( बिन्दुखिल करके जब एकसे दो बिन्दु होकर ) एक बिन्दु प्रकृति नामको लेकरके जब नाचते नाचते प्रथम बाहर हुये, उसके साथ ही साथ पुरुष भी (स्थिर बिन्दु) नाचते रह गये (दोनों बिन्दुके ही कम्पन ); पुरुषका कम्पन अति अधिक दर्शनमें आनेके कारण उसका नाम हुआ "ताण्डव” और प्रकृतिका कम्पन धारणामें आने के कारण उसका नाम हुआ "लास्य" । इसलिये ताण्डवका “ता" और लास्यका "ल' दोनों मिल करके शब्द हुआ "ताल"। अखण्ड-नादके गर्भमें ये प्रकृति देवीका ताल क्रममें पादचारण करनेसे जो व्यजन-मिलन होता है उसीको छन्द कहते हैं, वो छन्द फिर ह्रस्व, दीर्घ प्लुत उच्चारणके लघु, गुरु भंगिमा से सात स्वरमें सुनाई देती है। जब तुमने उस शब्दको प्रथम सुना था तब तुम घबराके आश्चर्य भावमें डूबे थे या नहीं ? अच्छा! फिर जब तुम इसके बाद भावके अधिकतासे भावके सागरमें डूब कर