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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । और भी स्वधर्मको देख करके विकम्पित होना तुम्हारे लिये उचित नहीं; क्योंकि क्षत्रियोंके पक्षमें धर्मयुद्धके अतिरिक्त श्रेयस्कर दूसरा और कुछ नहीं है ॥ ३१॥
व्याख्या। स्वधर्म-आत्मघम। आत्मक्षेत्र बुद्धिक्षेत्रके ऊपर है। लययोगका आश्रय करके इस क्षेत्रमें आ पहुंचनेसे, (अनुलोमकी गतिमें ) केवल अहंकारका आविर्भाव करके, हम ही सब, मैं ही मैं हूँ इस प्रकार स्थिर धोर अतिस्निग्धोज्वल तडित्पुञ्जवत् प्रकाशमय "मैं” रूपको एक-रस अवस्था आती है, उसीको स्वधर्म जानना चाहिये। साधक ! तुमने गुरूपदेश-प्राप्त सहस्रारके क्रियायोगसे ध्वनिके अन्तर्गत ज्योति भेद तथा मनको विलय करके, विष्णुपद में मिलकर स्घधर्माको प्रत्यक्ष अनुभव किये हो-समझ भी चुके हो; समझनेके पश्चात् तुम्हारा इस प्रकार कम्पित होना ठीक नहीं। तुम क्षत्रिय-आत्मराज्यसंस्थापनेच्छु हो; उस आत्मधर्मके हेतु शमदमादिके साथ श्रात्म निग्रहके लिये (शरीर ही “मैं” हूँ, ये अभिमान नष्ट करनेके लिये ) युद्ध (प्राणायाम) बिना तुम्हारा और दूसरा श्रेयः है ही नहीं ॥ ३१ ॥
यहच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमोदृशम् ॥ ३२ ॥
अन्वयः। हे पार्थ ! यदृच्छपा च ( अप्राथिताप ) उपपन्नं (प्राप्तं) अपावृतं (उन्मुक्त) स्वर्गद्वारं ( इव ) ईदृशं युद्ध सुखिनः क्षत्रियाः लभन्ते ।। ३२ ।।
अनुवाद। हे पार्थ। आपही आप उपस्थित् उन्मुक्त स्वर्गद्वार-स्वरूप ईदृश युद्ध सुखी क्षक्षियगणको ही प्राप्त होता है ।। ३२ ।।
• * “यो बुद्धः परतस्तु सः"--३ य अः २४ श्लोक। "मनसस्तु: पराबुद्धिः बुद्धरात्मा"-श्र तिः ॥३१॥