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द्वितीय अध्याय
व्याख्या। सुख-सु-सुन्दर, शुभ; ख-शून्य । क्षिति अप, तेज, मरुत्, व्योम-ये पांचही 'कुछ' हैं; जिसका आदि-अन्त-मध्य है, उसीको ही कुछ कहते हैं, वो कुछ न रहना ही “शून्य" अर्थात् अविषय है। अभावका आपूरण ही अर्थात् प्राप्तिका प्राप्ति या आकांक्षा मिट जाना ही "शुभ” है। शान्तिके लिये ही आकांक्षा है । अविच्छिन्न निस्वैगुण्य अवस्था ही शान्ति है। मात्रास्पर्श समूहके (२ य अः १४ श्लोक) उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य होनेके कारण शान्ति नहीं आती। किन्तु अात्माके नित्य होनेके कारण, विषय छोड़ करके अात्मामें आ पड़नेसे ही शान्तिमय आत्मानन्द लाभ होता है। इस विषयशून्य शान्तिमय अवस्थाको ही सुख कहते हैं। जो यह सुख भोगते हैं वह भाग्यवान् पुरुष ही सुखी है। जो क्षत्रिय अर्थात् आत्मज्योतिके प्रकाशका रक्षाके लिये वीर्यशील हैं, तथा सुखी हैं वह पुरुषरत्न इस प्रकार युद्धलाभ करते हैं; क्योंकि यह युद्ध अनायास-लब्ध है। क्षत्रियवृत्ति-सम्पन्न सुखी साधक दिव्य दृष्टि करके देखते हैं कि, मानसिक वृत्ति सकल आप ही आप (किसी प्रकारका चेष्टा न करनेसे भी) नाना विवय में दौड़ता हुआ उनको (साधक को) आत्मपदसे हटा देनेके लिये चेष्टा कर रही हैं। इसीलिये यह युद्ध अनायास लब्ध है। और भी यह युद्ध स्वर्गका उन्मुक्त द्वार स्वरूप अर्थात् आत्मगतिका खुला हुअा दरवाजा है; क्योंकि जो साधक ऊँचे स्तर में उठ गये हैं वह जानते हैं कि देहात्माभिमान नाश करने वाला सूक्ष्म प्राण-चालन ठीक होनेसे ही एक प्रस्फुटित मणिमय (हीराके तेज सरिस ज्योतिसदृश ) अवकाश वा छिद्रसे "कोटीसूर्य्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं" आत्मज्योति खिलती हुई बाहर निकल आती है, दशनमें आती है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि हे पार्थ! बड़े भाग्यसे इस युद्ध ( क्रिया) मिलता है ॥ ३२ ॥