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श्रीमद्भगवद्गीता सिद्धान्तकी बातें ( उक्त्वा ) है। अतएव इस अनित्य शरीरके ऊपर ममतापरायण न होकर युद्ध करो, अर्थात् लय योगमें प्रवृत्त हो जाओ।। १८ ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्च नं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। यः एनं ( आत्मानं ) हन्तारं वेत्ति, यः च एनं हतं मन्यते, तौ उभौ न विजानीतः (न ज्ञातवन्तौ ); अयं न हन्ति, न हन्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद। मनमें इस आत्माको जो हन्ता मान लेते हैं, एवं इनको जो हत मानते हैं, उन दोनोंको ही-प्रकृत तत्त्व मालूम नहीं, क्योंकि यह आत्मा किसीको हनन भी नहीं करता, एवं किसीसे हत भी नहीं होता ॥ १९ ।।
व्याख्या। साधक ! तुम ऊपरमें उठ करके देखो, आत्मा पूर्ण एवं एक है, आत्मा ही जगत है; दो न होनेसे वह हन्ता तथा हत कुछ भी हो नहीं सकता ॥ १६ ॥
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं __भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥ अन्वयः। अयं ( आत्मा ) कदाचित् न जायते न म्रियते वा; भूत्वा वा भूयः न भविता; अयं अज: नित्यः शाश्वतः पुराणः, शरीरे हन्यमाने न हन्यते ॥ २०॥
अनुवाद। यह आत्मा कदापि जन्म भी नहीं लेता मरता भी नहीं, अथवा उत्पन्न होकर पुनराय उत्पन्न होवेगा भी नहीं। यह अज, नित्य, शाश्वत तथा पुराना है। शरीरके विनाश होनेसे इसका विनाश नहीं होता ॥ २० ॥
व्याख्या। अज = जो कभी जन्मता नहीं, नित्य =जो सर्वकालमें विद्यमान रहता है, शाश्वत =अविनश्वर, पुराण =जो सृष्टिके पहले, और संहारके पश्चात् विद्यमान रहता है। आत्मा इस रूप स्वभाव