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द्वितीय अध्याय
७१ व्याख्या। मन-श्रादि ग्यारह इन्द्रियोंके वृत्तियां मात्रा कही जाती हैं। इन सबके साथ विषयके टक्कर (छुआछूत होने) लगनेका नाम मात्रास्पर्श है। उस टक्करसे ही शीत, उष्ण, सुख, दुःख उत्पन्न होता है; यह सब भी फिर उत्पत्ति विनाशशील होनेके कारण अनित्य
है। इसीलिये उन सबको तितिक्षासे अर्थात् "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः ' सुखेषु विगतस्पृहः वीतरागभयक्रोधः” हो करके सहन करना होता है। सुषुम्नान्तर्गत ब्रह्मनाड़ी धरके प्रति चक्रमें "मामनुस्मरन्” करते करते उठनेके समय शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध ये पांचों विषय साधकको भोग देनेके लिये नाना मोहिनी रूप धारण कर उपस्थित होते हैं; मोहित होकर उसमें मन स्पर्श करनेसे ही फंसना होता है, किन्तु भोग चिरकाल नहीं रहता, समय आनेसे ही भयको प्राप्त होता है, रह जाता है केवल संसार-बन्धन। उन सब विषयोंकी ओर भ्रक्षेप न कर मनको संयत कर सूच्यग्र परिमित कूटस्थ-बिन्दुमें लक्ष्य स्थिर करके तन्मय होनेसे, अमृत पद पाया जाता है ॥१४॥१५॥
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥ अन्वयः। असतः भावः न विद्यते, सतः अभावः न विद्यते; तत्त्वदशिभिः तु अनयोः उभयोः अपि अन्तः दृष्टः ॥ १६ ॥
अनुवाद। असत्का अस्तित्व नहीं है, सत् वस्तुको अषियमानता भी नहीं है। तत्पदशिंगण इन दोनोका ही अन्त देख चुके हैं ॥ १६ ॥
व्याख्या । - तत्त्व-वस्तुका स्वरूप है। वस्तु दो प्रकारके हैं, सत् और असत्। सत्-आत्मा; असत्-आत्माको छोड़ करके और सब, अर्थात् २४ अंशमें विभक्ता प्रकृति है। असत् वस्तुको अवस्तु भी कहते हैं। दर्शन दो प्रकार के हैं,-अनुलोम और विलोम । मूलसे डगला देखना विलोम दर्शन; यही सृष्टि-प्रकरण है। उगलासे मूल देखना अनुलोम-दर्शन है, यही मुक्ति-प्रकरण है। सृष्टिकरण