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द्वितीय अध्याय नत्वेवाहं जातुनासं नत्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२॥ अन्वयः। अहं जातु ( कदाचित् ) न आसं इति तु न एव; त्वं न आसीः इति न, इभे जनाधिपाः (नृपाः ) न आसन् इति तु न अतःपरं वयं सर्वे न भविष्यामः (न स्थास्यामः ) इति च न एव ॥ १२॥
अनुवाद। मैं जो कभी न था ऐसा नहीं, तुम जो न थे ऐसा भी नहीं; ये राजन्यवर्ग जो कभी नहीं थे वह भी नहीं, इसके पश्चात् हम सब फिर न रहेंगे ऐसा भी नहीं ॥ १२॥
व्याख्या। "मैं"-श्रात्मभाव वा परमात्महू; "तुम"-जीवभाव; "जनाधिप”–जन=अन्तःकरण वृत्ति समूह, अधिप-इन सबके भीतर जो जो प्रधान हैं। जीवभाव एवं आत्मभावके समवायसे यह जो चेतनशरीर है, इस शरीरके पूर्व में यह जीव तथा आत्मभाव था, अन्तवृत्ति भी था; न रहनेसे अभीका (वर्तमान कालका) यह समवाय नहीं होता; क्योंकि अतीत तथा वर्तमान कर्मसूत्रमें बंधा हुआ है। वह बन्धन न खुलनेसे, भविष्यत्में भी ये समवाय रहेगा, अर्थात् फिर "मैं" "तुम" "ये" सब उत्पन्न होंगे ॥ १२ ॥
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
अन्वयः। देहिनः (देहाभिमानिनः जीवस्य ) अस्मिन् देहे (स्थूलशरोरे) कौमारं यौवनं जरा ( इति अवस्था परिवर्तनं ) यथा भवति, देशान्तरप्राप्तिः ( एकदेहनाशे अन्यदेहप्राप्तिरपि ) तथा मपति; धीरः ( धीमान् ) तत्र (देहनाशोत्पत्ती) न मुह्यति ( आत्मा एव मृतो जातश्च इति न मन्यते ) ॥ १३॥
अनुवाद। जीवके इस (स्थूल ) देहमें कौमार यौवन जरा आदिको अवस्थाका परिवर्तन जैसा होता है, वैसीही देहान्तर प्राप्ति भी है अतएव धोर व्यक्ति उससे मोहित नहीं होते ॥ १३ ॥