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श्रीमद्भगवद्गीता कूटस्थ-श्रीबिन्दुसे निम्न प्रकार वाक्यका उच्चारण होता है* ( भावका स्फरण होता है)। जिन महाभागने उस अवस्था में पहुँच कर उस वाक्यको सुने हैं, वह धन्य हैं, उनका जीवन सार्थक है, और पुरुष पद वाच्य भी वही हैं ॥ १०॥
श्रीभगवानुवाच ॥ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनंगतासूश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥ अन्वयः। त्वं अशोच्यान् ( शोकस्य अविषयोभूतान् ) अन्वशोचः ( अनुशोचितवान् ), च (पुनश्च ) प्रज्ञावादान् (पण्डितानां शब्दान् ) भाषसे; (किन्तु ) पण्डिताः (विवेकिनः ) गतासून् ( गतप्राणान् ) अगतासूश्च ( जीवतोऽपि ) न अनुशोचन्ति ॥ ११॥ ___ अनुवाद। तुम अशोच्य विषयमें शोक करते हो, फिर पण्डित सरिस वचन भी पोलते हो, किन्तु क्या मृत क्या जीवित किसीके लिये पण्डितगण शोक नहीं करते ॥ ११॥ ... व्याख्या। जो जो साधक क्रियाके परावस्थामें रहते हैं, उन उन साधकके अन्तःकरणमें चांचल्य तथा स्थिरत्व (जीवित और मृत) कुछ भी प्रकाश नहीं पाता। तुम यह स्थितिपदमें न रह करके भी स्थितिपदमें रहने सरिस बचनका भाषण करते हो, अथच सर्वदा चंचल तथा अस्थिर अवस्थामें अवस्थित रहते हो ॥ ११ ॥
• सात्त्विक आहार, सात्त्विक व्यवहारका आश्रय करके सात्त्विक भावमें गुरूपदेश पालन करते रहनेसे शीघ्र ही गीता-गायत्री आपही आप उच्चारित होती रहती है, जो सुननेमें आती है। इसलिये वेद तथा उपनिषदको “श्र ति" कहते हैं। भगवद् वाक्य किसी मनुष्यके रचित नहीं हैं। ऐकान्तिक विश्वाससे जो पुरुष सद्गुरूपदिष्ट पयमें विचरते हैं, वह महात्मा इसकी सत्यता समझते हैं, तथा जो भाग्यवान् विचरेंगे, वह भी समझेगे। भाषा तथा अनुमानसे समझा या समझाया जा नहीं सकता। भुक्तभोगी न होनेसे इस अवस्था का परिज्ञान होता ही नहीं ॥ १० ॥