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श्रीमद्भगवद्गीता --
संजय उवाच । एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुड़ाकेशः परन्तपः ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं वभूव ह ॥६॥ अन्वयः। संजयः उवाच । गुड़ाकेशः (जितनिद्रः ) परन्तपः ( शत्रुतापनः अर्जुनः ) हृषीकेशं ( इन्द्रियाणां ईश्वरं कृष्णं ) एवं ( उक्तप्रकारं ) उत्तवा, “न योत्स्ये" इति गोविन्दं उत्तवा, तुष्णीं बभूव ह ॥९॥
अनुवाद। संजय कहते हैं,-गुड़ाकेश परन्तप अर्जुनने हृषीकेशसे ऐसा कहकर फिर कहा कि "हे गोविन्द ! मैं युद्ध न करू गा" । और फिर चुप हो रहे ॥९॥
व्याख्या। गुड़ाकेश परन्तप अर्जुन (साधक ) जब पूर्वोक्त प्रकारसे कह रहे थे, तब वह कूटस्थ-चतन्यको हृषीकेश रूप करके प्रत्यक्ष करते थे, अर्थात् देखते थे, कि कूटस्थ-चैतन्य ही इन्द्रिय-समूहके नियन्तारूपसे विराज रहे हैं। इसके बाद जैसे ही उन्होंने स्थिर किया और युद्ध (क्रिया ) न करूंगा (जो होनेको हो ), वैसे ही गोविन्द रूपका प्रकाश होता है (गो= विश्व-समूह, पंचकोशसमन्वित यह शरीर है; विद् =जानना। जो विश्वका ज्ञाता, साक्षी, धाता है वही पुरुष गोविन्द है। ) अर्थात् साधक कूटस्थ-ब्रह्मको इस विश्व-कोषके सर्वसाक्षी धाता-स्वरूपसे देख करके उनको ही "सर्वस्व पुरुष” प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रकार होनेसे ही अनासक्ति भाव खिलता है, तब साधकमें एकदम तुष्णीभाव आ जाता है। निस्तब्ध अवस्थाको तुष्णीभाव कहते हैं। इस अवस्थामें इन्द्रिय समूह अपने अपने कामसे अवसर लेते हैं, मन चेष्टा शून्य हो करके कुछ अवलम्बन न करनेसे अपने आपमें रहता है। यह तुष्णीभाव-गुड़ाकेश एवं परन्तप न होनेसे हो नहीं सकता। जिन्होंने निद्राको (अलसताको) जीत लिया-जो निद्राको भी निद्रित करना सीखे हैं जो निद्राको सम्पूर्ण रूपसे अपने अधीन कर प्रयोजनके अनुसार निद्रा-भोग कालमें भी माया चक्रसे स्वप्न कुहकमें नहीं ..