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श्रीमद्भगवद्गीता कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्र यः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७॥ अन्वयः। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः ( एतान् हत्वा कथं जीविष्याम इति कार्पण्यं, दोषश्च कुलक्षयकृतः, ताभ्यां उपहतः अभिभूतः स्वभावः शौर्य्यलक्षणः यस्य सः अहं ) धर्मसंमूढ़चेताः (युद्ध त्यक्त्वा भिक्षाटनमपि क्षत्रियस्य धम्मोऽधर्म वा इति सन्दिग्धचित्तः सन् ) त्वां पृच्छामि, यत् मे श्रेयः स्यात् तत् निश्चितं ब्रहि अहं ते शिष्यः, त्वां प्रपन्नं ( शरणंगतं ) मां शाधि (शिक्षय ) ॥७॥
अनुवाद : आत्मोय विनाश करके कसे जिऊंगा, इस प्रकार कातरता तथा फुलक्षय करनेसे दोष होगा इस प्रकारके दोष की चिन्तासे हमारा स्वभाव ( शौय्यं । अभिभूत हुआ है । और युद्ध त्याग करके क्षत्रियको भिक्षावृत्ति ग्रहण करना धर्मसंगत है कि नहीं, इस विषयमें मेरे मनमें सन्देह उपस्थित हुआ है; इसलिये मैं आपसे पूछता हूँ, जिससे हमारा श्रेय हो निश्चय करके कहिये मैं आपका शिष्य आपके शरणागत हूँ मुमको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥
व्याख्या। साधक इस श्लोकमें कर्तृत्व अभिमानका एक बारगी त्याग कर गुरुपदमें आत्मसमर्पण करते हैं, कहते हैं "ममतापरायण होनेसे हमारी बोधशक्ति ढक गई, चित्त भी धर्म-विषयमें मोहको प्राप्त हुआ है। इसलिये आपसे पूछता हूँ कि जो श्रेय हो वह निश्चय कर मुझसे कहिये। मैं शिष्य आपके शरणागत होता हूँ, उपदेश दीजिये कि मैं क्या करू।" -शिष्यत्व स्वीकार करके शरणापन्न न होनेसे, तत्त्व-उपदेश मिल नहीं सकता। यह बात प्रकाश्यमें जैसी वैसी ही भीतरमें भी है। कारण देखा जाता है कि, क्रियाकालमें अहंकार ( कर्तत्वभाव ) त्याग करके भक्तिपूर्वक गुरुचरणोंमें आत्मसमर्पण न करनेसे और किसी प्रकारसे ही अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती, तत्त्वज्ञान लाभ भी नहीं होता। इसलिये सद्गुरुका शिष्यत्व स्वीकार ही इस श्लोक का उपदेश है ॥७॥