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द्वितीय अध्याय
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । . अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यं ॥८॥ अन्वयः। भूमौ ( पृथिव्यां ) असपन ( निष्कण्टकं) ऋद्ध (समृद्ध) राज्यं सुराणामपि आधिपत्यं च (सुरेन्द्रत्वंच ) अवाप्य (प्राप्य ) यत् ( यत् कर्म) इन्द्रियाणां उच्छोषणं ( अतिशोषकर ) मम (मदीयं) शोकं अपनुयात् ( अपनयेत् ), तत् हि न पपश्यामि ॥ ८॥
अनुवाद। पृथिवीमें निष्कण्टक और समृद्ध राज्य, यहां तक कि देषगणके असर आधिपत्य पानेसे भी यह सुझाई नहीं देता कि जिससे मैं अपनी इन्द्रियोंके शोषक इस शोकको दूर कर सकू ॥ ८॥
व्याख्या। भूमि-क्षेत्र, यह शरीर है। असपत्न-नि:शत्रु । देवप्रतिकूलता, असत्वृत्ति, तथा प्राकृतिक विकृति *-यही तीनों शत्रु हैं। आसन-प्राणायामादिसे इस शरीरके विषयमें जितना जितना परिज्ञान होता रहे, उतना ही उतना निःशत्रु राज्य होता है; तब विशेष विशेष क्रियासे जो योग-सिद्धि लाभ होती है, उसीको ऋद्धि वा विभूति कहते हैं। योग-सिद्ध हो करके विभूति-भूषण होनेसे ही शरीर असपत्न ऋद्ध राज्य होता है।
सुर (स+उ+र)-स-ईश्वर, "प्राणोहि भगवानीशः” अतएव प्रा; उ=सहस्रार-स्थिति-पद; र= तेज, प्राण सहस्रारमें स्थिर होनेके पश्चात जो तेजोराशि प्रकाश पाती है, वही सुर है। उस तेजके
आगे पीछे "नाद विन्दु" में मन समर्पण करनेसे जो शक्ति लाम होती है, वही सुराणां आधिपत्य है ॥८॥
* देषपूर्वकृत संचित कर्म है। संचित-कर्म का क्षय न होनेसे किया पुरुषकारसे उस संचित कर्मको अतिक्रम न करनेसे नवीन कर्मका फल मिल नहीं सकता। असत्वृत्ति-विषयासक्ति है। प्राकृतिक विकृति-वायु पित्त कफका प्रकोप है।