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द्वितीय अध्याय बीचमें दोलता रहता है, अर्थात् एक दफे आत्म-ज्ञान की शक्तिसे ऊपरमें उठता है, फिर विषय-ज्ञानके दोषसे नीचे उतर पड़ता है। आत्म-ज्ञानमें-"हम ही सबके प्रभव तथा हमसे ही सर्व प्रवर्तित" इस प्रकार स्वाधीनभाव आता है। विषय-ज्ञानमें-"आप सर्वज्ञ गुरू, मैं अज्ञ शिष्य” इस प्रकार अधीन-भाव आता है। इन दोनों भावोंको ही यथा-क्रम करके आत्म-भाव तथा जीव-भाव कहते हैं । जीव-भावका संशय आत्म-भावमें समाधान होता है। यह श्रीकृष्णार्जुनका कथोपकथन ही जीवात्म-भावका संशय-समाधान है। ये दोनों एक ही की भिन्न अवस्थायें हैं; मैं हो समझता हूँ, मैं ही समझाता हूँ,-माया की खिंचाईमें पड़नेसे ही अर्जुन, और न पड़नेसे ही भगवान् । योग मार्गकी आत्म-कुटीर में ऐसा ही प्रत्यक्ष होता है। साधक ! अब समझ लो कि-"अर्जुन उवाच" "श्री भगवानुवाच"। वाक्यका अर्थ क्या है।
"संख्ये"। सं-सम्यक् , स=आकाश, य=यान, ए= स्थिति, अर्थात् देहाभिमान त्याग करके सम्पूर्णरूप आकाश-यानमें (चिदाकाशमें ) स्थित हो करके। ___ "इषुभिः"। आत्ममन्त्र तथा हंस परस्पर समन्वय करनेसे प्राण अतीव सूक्ष्म तथा तीव्रवेगशाली होता है; इसोका नाम इषु वा वाण(भेद करनेवाली चीज ) है। इसीसे ही अन्तरावरण समूहका भेद हो जाता है। ___ साधक (अर्जुन ) संसार बीज नष्ट करनेके लिये खड़े हुये हैं, किन्तु मायिक विफलता करके ज्ञान ढक पड़नेसे उनको अनेक संशय हो रहा है। इसीलिये आत्म-भाव मधुसूदनको लक्ष्य करके सोचते हैं,-"देहसे अलग हो करके तथा मनको आकाश-सदृश निलिप्त करके, सूक्ष्म-प्राणचालनसे श्वासके टक्करसे मनको कैसे मारूंगा ? अर्थात् ( भीष्म ) मनके अहत्व, एवं (द्रोण ) मन-चालित बुद्धिको