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अनासक्ति वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे । वमित अर्थात् परित्यक्त विषयों की पुनः भोगेच्छा से तो मरना श्रेयस्कर है।
-~-दशवैकालिक ( २/७ ) असंसत्तं पलोइज्जा । ललचाई हुई दृष्टि से किसी भी चीज को न देखें ।
-दशवैकालिक (५/१/२३ ) अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं । जो साधक शरीर तक में ममत्व नहीं रखते, वे अन्य क्षुद्र साधन-सामग्री में क्या ममत्व रख सकते हैं ?
-दशवैकालिक (६/२१) कन्न सोक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिवेसए। तथ्यहीन शब्दों में अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिये, चाहे वे कानों के लिए सुखकर हों।
__ -दशवैकालिक (८/२६) वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं
से सव्व सिणेह वज्जिए। जैसे कमल शरत्-काल के निर्मल जल को स्पर्श नहीं करता, अलिप्त रहता है वैसे ही साधक को भी जगत् से अपनी समस्त आसक्तियाँ मिटाकर, सर्व प्रकार के स्नेहासक्त-बंधनों से दूर हो जाना चाहिये ।
-उत्तराध्ययन (१०/२८) विश्चाण धणं च भारियं, पव्वइओ हि सि अणगारियं, मा वन्तं पुणो वि आइए।
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