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का सच्चा उपाय नहीं हूँढ़ते हैं। इसके लिये हमें कहीं दूर नहीं जाना है, कई वर्षों तक जांच पड़ताल करने की आवश्यकता भी नहीं है, है तो केवल यही है, कि अपने प्राचीन ग्रन्थों का अनुशीलन करें।
हमारे आयुर्वेद में इसका उपाय बड़ा सीधा और सरल बताया गया है। पर आज तो 'घर आया नाग न पूजिये, बाँबी पूजन जाय ।' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। फिर हजार कोई कुछ कहे उस पर विश्वास ले आना कहां? आप सच मानिये इस सिद्धान्त में कभी विलक्षणता मालूम नहीं पड़ेगी। यदि उचित और आवश्यक पथ्य का प्रचार औषधियों के स्थान में बढ़ाया जावे, और लोग इसके प्रति बनावटी नहीं किन्तु सच्चा अनुराग रखें तो यह बात सत्य है, कि जगत् के प्राणियों को प्रकृति के विरुद्ध बारम्बार मिक्सचरों से अपने पेट को अस्पताल बनाना नहीं पड़े । धन धर्म की रक्षा होगी,
और द्यौ और डाकरों को चिकित्सा सम्बन्ध में काम करने को बहुत कम रह जायगा साथ ही नेताओं को हमारे देश की तन्दुरुस्ती की इस कङ्गालो के लिये इतना चिन्तित न होना पड़ेगा। नैव लोलिम्बराज जी कवि ने ठीक ही कहा है कि"पथ्ये सति गदार्तस्य किमोषध निषेवणैः' अर्थात् पथ्य का सेवन किया जाय तो औषधियों के उपयोग करने की आवश्यकता हो न पड़े। तात्पर्य यह है, कि पथ्य रखने से शरीर में सहसा कोई बिगाड़ नहीं होता और यदि कदाचित् कभी कुछ हो जाय तो शोध हो अपने आप पथ्य से दूर हो जाता है ।अतः
औषधियों की तब आवश्यकता ही नहीं होती है। बीमार भी पथ्य नहीं रखते
शास्त्र में इसके सम्बन्ध में चाहे कुछ ही क्यों न लिखा रहे,
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