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में तेज अग्नि से न बनाया जावे जिससे उसका 'हीण बल जावे'। न इतनी कम अग्नि से तैयार किये जावे कि पूरा पके-सिके भी नहीं वा धुए से खारे हो जावें । पथ्य बहुत सावधानी से, स्वच्छता से बनाये जावे, उनमें कंकर, रेत,
स, केश आदि न हो इसका खास ध्यान रखा जावे, कारण बीमारी की हालत में रोगो का चित्त इन चोज़ों से बड़ा ही उत्तेजित हो जाता है। बीमारी में स्वाद और रुचि बदल जाने के कारण रोगी की इच्छा वा स्वभाव तन्दुरुस्तों के समय सा नहीं होता, इस से वह भूख न होने से भोजन में कुछ न कुछ खोड-कमी निकालता ही रहता है। कभी कहता है दाल पतली हो गई है, कभी जाडी-गाढी बहुत बतलाता है, नमक नहीं डाला, मिरचे बहुत डाल दी, बहुत ले आये, गर्म है, ठण्डी हो गई है इत्यादि अनेक प्रकार से वह कुछ न कुछ कमी-अच्छा और स्वादिष्ट पथ्य बना होने पर भी बतला देता है पर उसके लिये ' ठीक हो बनी है' का पीछा जवाब दे कर जिद्द नहीं करनी चाहिये किन्तु उसको इच्छानुसार तुरंत हो व्यवस्था कर देनी चाहिये जिसले उसका चित्त शान्त रहे
और सन्तोष हो। ज़रा होशियारी और समय सूचकता को काम में लाने से रोगी वही वस्तु रुचि के साथ खा सकता है
और मूर्खता वा जिद्ध करने पर उसका चित्त व्याकुल होकर बड़ा कष्ट पाता है-छोजता है। परिचारक को चाहिये कि रोगी को पथ्य स्वच्छ थाली में परोस कर ले जावे, सागपात सब जुदे जुदे कटोरियों में हों, खाने की सब चीजें करीने से रखी हुई हो, नमक, मिरच आदि सब मलाले रोगी की तत्कालिन रुचि के अनुसार डाले हुये हो और वह सुभीते के साथ उन्हें ले सके ऐसे पात्रों में हो। यदि रोगी की शक्ति न हो तो वह बिस्तर पर बैठा बैठा ही ले सके ऐसी
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