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( ३६ ) अनुचित कष्ट वा क्लेश न हो और पथ्य भी सरलता से दिया जा सके।
बीमारी चौबीसों घण्टे ही एक सी नहीं रहती है। कभी कम और कभी ज्यादा होती है, अतः जब ज्यादा हो उस समय रोगी को पथ्य के लिये अनुरोध करना उचित नहीं। क्योंकि ऐसे समय उसका चित्त शान्त नहीं होता और उससे उसे पथ्य नहीं भाता है, पर लोग इसका विचार न कर अपनी इच्छानुसार जब चाहा तभी खाने के लिये रोगी को बाध्य करते हैं पर उस समय उसे भूख न होने से वा रुचि से न खाये जाने से वह पथ्य उलटा प्लेशकारी होता है। बिना भूख के खाया जाने पर गुण भी नहीं करता और न अच्छी तरह वह खाया हो जाता है। . रोगी को अपनो रुचि अनुसार पथ्य लेने देना चाहिये अथवा वैद्य सलाह दे उतना देना चाहिये । पर अधिक खाने के लिये आग्रह करना वा जबरदस्ती उत्साहित बनाना ठोक नहीं । प्रायः देखा गया है कि जब रोगी को पथ्य नहीं भाता है, उसे अनिच्छा होती है तब भी यही सलाह दी जाती है कि 'श्रांख मीच कर पानी की गुटक ही से उतार लो'। उसके नहीं खाने की शिकायत-गनगनाट-दूसरों के सामने कर उल्हना दिलाना वा दूसरे के सामने पस्तहिम्मत बताना और उससे उसे दबाने-लाचार करने में किसी रूप में दूसरे से सहायता प्राप्त करने का उद्योग करके बिना रुचि के भी रोगी को खाने के लिये लाचार करना सर्वथा निन्दनीय है।
पथ्य के लिये रोगी से उतावल नहीं की जावे । अशक्तता के कारण रोगी तुरंत ही उठ कर पथ्य लेने की इच्छा नहीं करता वह धीरे २ विचार करता २ उठता है अतः शान्ति के साथ रोगी चाहे उस तरह से पथ्य लेने में सहायता दी जावे ।
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