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( ३५ ) दे दिया । पथ्य के सम्बन्ध में वैद्य की श्राज्ञा ही सर्वोपरि समझो जावे, और रोगों की रुचि की खबर वैद्य को बराबर करते रहना चाहिये, जिससे वह रोगी की अवस्था, जरूरत रोग और रुचि पर भले प्रकार विचार कर समय पर पथ्य में उचित फेरफार करता रहे।
पथ्य की व्यवस्था करना मामूली काम नहीं है। इसके लिये व्यवहारिक ज्ञान की जरूरत होती है। चाहे जो व्यक्ति पथ्य को युक्ति के साथ सेवन करा कर रोगी को राजी नहीं रख सकता। पथ्य देने वाले में धैर्य, शान्ति, तत्परता और सहनशीलता के गुण भी होने चाहिये । ये गुण पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में वोमारी के समय विशेष रूप से पाये जाते हैं। इससे पथ्य देने का काम स्त्रियों के जिम्मे हो रखना ठीक है परन्तु स्त्रिय आरोग्यता के नियमों से एक दम अजान होने से, भूल से, मूर्खता से वा धृष्टता से पथ्य के स्थान में कुपथ्य करा बैठती है, आदेशानुसार प्रबन्ध नहीं करती, अपनी अकल लगा कर कुछ का कुछ कर बैठती है, अथवा रोगी को जबरदस्ती खिलाने में और अधिक खिलाने के उद्योग ही में सदा लगी रहती है। साथ ही अपमे कियों का साफ २ कहती भी नहीं हैं इससे अकेली स्त्रियों पर और खास कर असाध्य रोगों में पथ्य जैमा महत्व का काम सौंप कर निश्चिन्त हो बैठना वा विश्वास रखना उचित नहीं कहा जा सकता । इसके लिये रोगी का कोई बड़ा सम्बन्धी जिस पर रोगी की श्रद्धा बहुत हो और रोगी उसके कहे को मानता भी हो उसे जिम्मेवार बनना चाहिये और प्रबन्ध रखना चाहिये । .: ...पथ्य देने वालों को ऊपर किये विवेचन के सिवाय औ भी कितनी ही बातों पर ध्यान रखना चाहिये जिससे रोगी को
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