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. (१२) जहां तक हो, घर में किसी के बीमार होने पर कुपथ्यकारी पदार्थ न तो बनाना चाहिये और न बाजार से लाकर खाना ही चाहिये।
(१३) रोगों को कभी २ भूख की मालूम ही नहीं पड़ती है । अतः युक्ति से उसे याद दिला कर कुछ खिला देना ज़रूरी
(१४) कई बीमार यह नहीं जानते कि उन्हें कितनी भूख लगी है और कितना खाना चाहिये, अतः उन्हें अपचन न हो उतनी खुराक दे देनी चाहिये पर अधिक न दी जावे। ... . (१५) कितने ही रोगी स्वाद श्रादि के कारण अधिक खा लेने के लिये प्रयत्न करते हैं, पर उन्हें युक्ति से मना किया जावे, फिर खाने के लिये सलाह दी जावे, परखाने को 'ना' कह देने से वह रूष्ट हो जाता है और मानसिक चिन्ता करता है'घुटता है। .(१६) रोगों की थाली में खाते कुछ बच रहे तो उसे खा लेने के लिये दबाव न डाला जावे । कई लोग कह देते हैं कि 'इतेरे वास्ते अवे पाछो कई ले जाऊं', 'इतो कठे, नाकुं', थारो पठो दूजो कुंण खावे', 'खायो' ही नहीं ने यूंही तकलीफ दी। 'खावणां केखा है मंगावरणा है' 'यूरो यूही पड़ियो है'। पर इन वचनों से रोगी को आन्तरिक दुःख होता है जिसका अनुभव परिचारक को मालूम नहीं पड़ता है पर उससे रोग के घटने में मानसिक रुकावट पहुंचती है।
(१७) खुराक जो बच जावे, वह रोगी के कमरे से तुरंत बाहिर लेजाई जावे। . (१८) कितने ही कुटैव वा बालस्य के कारण रोगी से बचा हुआ पथ्य उसके मांचे के नीचे रख-सिरका देते हैं पर उससे
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