Book Title: Pathya
Author(s): Punamchand Tansukh Vyas
Publisher: Mithalal Vyas

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपथ्य ( १७४ ). तैल । खाने में उपयोग नहीं करना चाहिये । तैल का गुण मर्दन से ही होता है अतः मर्दन करना तैल ही अच्छा है। कई साग तैल में तैयार किये जाते हैं, प्राचार भी तैल ही में बनते हैं पर तैल घृत से देर में पचता है। गर्मी भी करता है । तैल अधिक सेवन से फोड़े, फुनसी, नेत्र पीड़ा, अर्श, खून विकार, मूत्र कृच्छ, उपदंश आदि रोग होजाते हैं वा वढ़जाते हैं । कई दवायें तैल के खास विरुद्ध होती हैं अतः दवायें लेवें तव तैल सेवन न किया जावे। बीमारो में मंदाग्नि रहने से तेल का उपयोग नहीं करना चाहिये। पथ्य शिरके लगाना ज्वर मर्दन पित्त विकार वात रोग अर्श ज्वर-जीर्णावस्था रक विकार जीर्ण ज्वर (मर्दन) नेत्र रोग सर्दी में ( मसलाना छाले ( हमें) संग्रहणी अतिसार धातु विकार चर्म रोग रन पित्त तेल का पालन कांजी है। तैल यदि अधिक सेवन किया जावे तो उसका पालन नमक, त्रिफला वा दूध चावल है। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197