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(३) भोजन ठूस कर नहीं खाना चाहिये। स्वाद के बशीभूत होकर हम अकसर अधिक खा जाते हैं। कभी,२ मित्रों के यहां जीमनों में अधिक मनवार से बहुत खा जाते हैं पर वह शरीर को नुकसान पहुंचाता है अतः रोज कुछ न कुछ कम ही खाना चाहिये । यदि कभी अधिक खाने के लिये लाचार होना पड़े तो दूसरे दिन नहीं खाना चाहिये वा कम खाना चाहिये।
(४) अधिक खट्ट, अधिक मीठे पा बहुत चरके पदार्थ नहीं खाने चाहिये न बहुत परिमाण में इन्हें सेवन करना चाहिये।
(५) रोज़ २ भारी चीज नहीं खानी चाहिये, किन्तु कभी कुछ खाली कमो २ । ३ दिन तक नहीं भी खाई इस तरह से मीठाई का व्यवहार करना चाहिये।
(६) स्वाद के वशीभूत होकर ही न खाना चाहिये किन्तु इसके लिये पेट से सलाह भी लेनी चाहिये।
(७) श्राचार तैल खटाई, मीठा, मेरे को चीजें आदि रोज २ नहीं खानी चाहिये । न बहुत खानी चाहिये।
() कोई भी वस्तु खाने को ली जावे पर वह अधिक न लेने से हानि नहीं करती है।
(6) जो भुश्राफ़िक न हो वह नहीं खानी चाहिये।
(१०) मौसिम में जो फटस-रसाल और साग आदि श्रावे वे जरूर सेवन किये जावें पर कम और किसी २ दिन।
(११) रोज एक ही प्रकार का भोजन नहीं करना चाहिये किन्तु समय २ पर बदलना चाहिये। . . (१२) भोजन प्रातः १० १ ११ बजे और शाम को ६ । ६॥ बजे
खाना चाहिये। :: (१३) भोजन साफ जगह में करना चाहिये । गीले. मैले, दुर्गन्ध वाले स्थान में जहां धुत्रां प्राता हो वहां नहीं जीमना चाहिये।
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