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* २६ ) झुन्झूल-मालूम न हो और वह जल्दी आरोग्य हो जाने के कारण अधिक दिन तक पथ्य के वश में भी रहने के लिये बाध्य न हो अथवा उसे होना न पड़े।
चिकित्सा शास्त्र के नियमानुसार जिस प्रकार रोगी की अवस्था प्रकृति और रोग आदि का निर्णय करके औषध दी जाती है, उसी प्रकार पथ्य की व्यवस्था भी इतने ही विचार के पश्चात् की जाती है करनी पड़ती है । वैध, उपचारक को पथ्य के सम्बन्ध में अच्छी तरह समझा देता है कि वह अमुक प्रकार का खान पान और रहन सहन उक्त रोगों के लिये रखे । रोगी की प्रकृतिके बदलाव के साथ २ औषध की भांति पथ्य में भी आवश्यक सुधार-फेरफार किया जाता हैहोता रहता है तभी रोगी के शीघ्र आरोग्य होने की आशा को जा सकती है। पर कितने ही वैध इस सुनियम को अच्छी तरह नहीं जानते वा जानते हुये भी उपेक्षा रखते हैं और पथ्य के सम्बन्ध में चिकित्सा करते समय प्रारम्भ में व्यौरे वार सलाह नहीं देते हैं, जिससे यश प्राप्त करने के निर्भय और सुलभ मार्ग से हटे रहते हैं, जो रोगी एवं वैद्य दोनों के हित की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। __ प्रायः देखा गया है कि साधारण रोगों में नतो कुछ जानने की इच्छा ही रहती है और न वैद्य कुछ व्यवस्था ही देता है। यो तो दवा 'गर्म पानी में ली जावे वा ठंडे में, ज्यादा गर्म करके ली जावे वा कांसो तप, पानी इंट बुझाया दिया जावे वा केलु बुझाया इत्यादि के लिये तो बड़ी पूछ ताछ की जाती है मानो इतनी सी बात ही में गुण अवगुणमें बड़ा अन्तर पड़ जायगा। पर खान पान और रहन लहन में आवश्यक सुधार करने की सलाह मिल जाने पर भी उसकी पर्वाह नहीं की जाती है।
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