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जब भी मैं आपके प्रवचनों को ध्यानपूर्वक सुनने की कोशिश करता हूं तो प्रवचन के पश्चात मैं स्मरण क्यों नहीं कर पाता हूं कि प्रवचन में आपने क्या कहा?
इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। अगर तुमने मुझे ध्यानपूर्वक सुना है, तो जो मैं कहता हूं उसे
स्मरण रखने की कोई आवश्यकता नहीं। फिर वह बात तुम्हारे जीवन का एक अंग बन जाती है। जब तुम भोजन करते हो तो क्या तुम्हें यह स्मरण रखना पड़ता है कि तुमने क्या खाया? स्मरण रखने का प्रयोजन क्या है? वह भोजन तुम्हारे शरीर का अंग बन जाता है, वह भोजन तुम्हारे शरीर का रक्त, मांस -मज्जा बन जाता है। वह भोजन तुम्हारा अंग बन जाता है। जब तुम कुछ खाते हो, तो फिर खाने को भूल जाते हो। वह पेट में जाकर पच जाता है, उसे स्मरण रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
अगर तुम मेरे को समग्रता से सुनते हो, तो मैं तुम्हारे रक्त में घुल –मिल जाता हूं, तुम्हारे साथ एक हो जाता हूं। मैं तुम्हारा रक्त –मांस –मज्जा बन जाता हूं मैं तुम्हारे अस्तित्व में समा जाता हूं। तुम मुझे अपने में आत्मसात कर लेते हो।
मेरे शब्दों को स्मरण रखने की कोई आवश्यकता भी नहीं। जब कभी कोई ऐसी परिस्थिति बनेगी, तो प्रत्युत्तर तुम्हारे भीतर से अपने – आप ही आ जाएगा. और उस प्रत्युत्तर में जो कुछ तुमने सुना है, जिस पर ध्यान दिया है, वह पूरा का पूरा उसमें समाहित होगा लेकिन फिर भी वह याद की हुई बात नहीं होगी, बल्कि तुम्हारे जीवन से, तुम्हारे अनुभव से आई हुई बात होगी।
और इन दोनों बातों के भेद को स्मरण रखना।
मेरा प्रयास तुम्हें और अधिक जानकार, ज्ञानी या पंडित बना देने का लिए नहीं है। तुम्हें थोडी और अधिक जानकारी दे देने के नहीं है। मेरे बोलने का और तुम्हारे साथ होने का मेरा यह उद्देश्य बिलकुल नहीं है। मेरा यहां पर पूरा प्रयास इस पर है कैसे तुम अपने अस्तित्व को, कैसे तुम अपनी सत्ता को उपलब्ध हो जाओ; तुम्हें और अधिक जानकार बनाने के लिए नहीं। तो मेरे साथ रहना, मुझे समग्रता से सुनना, बाद में मेरी बातों को याद रखने की कोई आवश्यकता नहीं है.। वे तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा हो जाती हैं। जब कभी भी उनकी आवश्यकता होगी, वे जीवंत हो जाएंगी। और तब वे बातें तुम्हारी किसी स्मृति की भांति न होंगी, कि तोते की तरह तुमने उन्हें दोहरा दिया; बल्कि वे तुम्हारी जीवंत प्रतिसवेदना की भांति होंगी, वे तमसे आएंगी।
वरना तो हमेशा इस बात का भय रहता है कि कहीं वे तुम्हा स्मृति न बन जाए। अगर तुम रूपांतरित नहीं होते हो, स्वयं को नहीं बदलते हो, तब तो केवल तुम्हारी स्मृति बड़ी से बड़ी होती चली