Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 04
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 481
________________ इस पर थोड़ा विचार करना। इस पर थोड़ा ध्यान करना। यह भी एक तरह की तुम्हारी आकांक्षा है, दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा है। इसी से सारी भ्रांतिया खड़ी होती हैं। तुम हमेशा प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हो, और इस प्रतिस्पर्धा में हमेशा कोई न कोई तुमसे आगे होता है। और तुम –उसे पीछे छोड़कर आगे निकल जाना चाहते हो। इसलिए और तेज दौड़ते हो। फिर उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े -चाहे वह न्यायसंगत हो या न हो, चाहे वह ठीक हो या गलत-तुम सब कुछ भूलकर बस उससे आगे निकल जाना चाहते. हो, उसे पराजित कर देना चाहते हो। इस तरह से तुम सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकते। इस ढंग से तो तुम अपने अहंकार को ही थोड़ा और सजा लोगे। फिर तुमने एक को हराया या अनेकों को हराया, इसी तरह से तुम आगे और आगे दौड़ते चले जाते हो। और इस तरह से अहंकार की परितुष्टि होती चली जाती है। और तुम अहंकार के बोझ से दबते चले जाओगे, और एक दिन अहंकार के इस विराट जंगल में खो जाओगे। प्रतिस्पर्धा इस दुनिया की सर्वाधिक अधार्मिक बातों में से एक बात है, लेकिन हर कोई वही कर रहा है। किसी के पास बडा मकान है। तुम्हारा मन तुरंत उससे बड़े मकान की आकांक्षा करने लगता है। किसी के पास सुंदर कार है। तुरंत तुम्हारे मन में उससे बड़ी कार की आकांक्षा उठ खड़ी होती है। किसी की पत्नी सुंदर है या किसी का चेहरा सुंदर है या किसी की आवाज मधुर है, तुरंत आकांक्षा उठ खड़ी होती है। इस बात की आकांक्षा उठ खड़ी होती है कि दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है, दूसरे के मुकाबले कुछ न कुछ सिद्ध करके ही रहना है, कि दूसरे के साथ संघर्ष करना है, कि किसी न किसी तरह से हर हाल में कुछ न कुछ पाकर ही रहना है। इस बात को न जानते हुए कि यह सब क्या है, फिर भी अंधेरी घाटी में यह सोचते हुए भटकते रहते हो कि कहीं न कहीं लक्ष्य तो होगा ही। और जन्मों -जन्मों तक तुम ऐसे ही जीए चले जा सकते हो। यही तो अब तक तुम करते रहे हो। ऐसे तो कभी कहीं पहुंचना न हो सकेगा। तुम हमेशा दौड़ते रहोगे और कभी पहुंचोगे नहीं, क्योंकि मंजिल तो तुम्हारे भीतर ही है। लेकिन उस तक पहुंचने के लिए सभी प्रकार की प्रतिस्पर्धाएं और आकांक्षाओं को गिराना पड़ता है। और ध्यान रहे, प्रतिस्पर्धा के पुराने नाम को नए नाम में परिवर्तित कर देना बहुत आसान है। किसी पुरानी प्रतिस्पर्धा को छोड़कर, किसी नई चीज को फिर उसी ढंग से पकड़ लो, लेकिन आकांक्षा वही की वही रहती है। अभी तुम्हारी आकांक्षा, इच्छा, वासना संसार से जुड़ी हुई है। फिर संसार की वासनाओं को तुम छोड़ देते हो। तब धर्म के नाम पर, आध्यात्मिकता के नाम पर, तुम्हारे मन में नई आकांक्षा और वासना का जन्म हो जाता है, तब फिर से तुम नए ढंग की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। तब फिर वही अहंकार प्रवेश कर लेता है। मैंने एक कथा सुनी है। इसे ध्यानपूर्वक सुनना।

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