Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 04
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 490
________________ तीसरा प्रश्न: कई वर्षों से मैं साक्षी – भाव में जी रहा हूं और वह मुझे रोग जैसा लगता है। तो क्या दो तरह के साक्षी भाव होते हैं? और मेरा जो साक्षी भाव है वह गलत है? कृपया समझाएं। गलत लत होना ही चाहिए, वरना यह रोग की प्रतीति नहीं हो सकती है। स्व-बोध आत्म-बोध नहीं है, और यही समस्या है। आत्मबोध एकदम अलग ही बात है वह स्व बोध बिलकुल नहीं है, सच तो यह है स्व –बोध आत्म-बोध के मार्ग में बाधा है। तुम 'स्व-केंद्रित मन द्वारा ध्यानपूर्वक अवलोकन और निरीक्षण करने का प्रयत्न कर सकते हो। लेकिन यह चैतन्य जागरुकता नहीं है, यह साक्षीभाव नहीं है, क्योंकि इसमें एक तरह का तनाव होता है, इसमें विश्रांति नहीं होती । - अधिकांश लोगों के साथ ऐसा ही होता है। लोग इसी तरह से बात किए चले जाते हैं। मेरे देखने में आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं आया जो वार्तालाप में कुशल न हो, लोग बोलने में खूब कुशल होते हैं। बातचीत करना एकदम मानवीय और स्वाभाविक बात है लेकिन अगर किसी से कहो कि मंच पर खड़े होकर बोलो, यहां तक कि चार सौ हजार लोगों की छोटी सभा में अगर किसी को खड़ा कर दो तो वह भय के मारे कांपने लगता है और उसका गला रुंधने लगता है, उसके मुंह से शब्द नहीं निकलते, वह एकदम पसीना पसीना हो जाता है होता क्या है? वैसे तो वह हमेशा खूब बोलता था, इतना बोलता था कि सुनने वाले की सीमा के बाहर होता था और अचानक अचानक एक शब्द उसके मुंह से नहीं निकलता ! तब वह अपने प्रति सचेत हो जाता है। इतने सारे लोग उसे देख रहे हैं, उस पर ध्यान केंद्रित किए हैं; तो उसे लगता है जैसे कि उसकी प्रतिष्ठा दाव पर लगी हुई है। अगर वह कुछ गलत बोलता है या गलत बोलते समय कुछ निकल जाता है, तो उसे लगता है लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे? उसने इस बारे में कभी सोचा नहीं था, लेकिन अब इतने सारे लोग उसके सामने हैं और शायद यह वही लोग होंगे जिनसे वह अब तक यही सब बातें करता रहा है - लेकिन अब मंच पर खड़े होकर उन लोगों को देखते हुए, और अब वही लोग एकसाथ उसकी ओर देख रहे हैं, उन सबकी आंखें तीर की भाति उसे बेध रही हैं, उसी पर केंद्रित हैं- उस समय वह व्यक्ति अहंकार - बोध से भर जाता है। अब उसका अहंकार दाव पर लगा होता है; यही बात तनाव का कारण बन जाती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505