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और जब तुम्हारे सब कुशल आयोजन तुमसे छीन लिए जाते हैं, तो तुम मिट जाते हो। और तुम्हारे मिटने पर ही तुम्हारी आत्मा का जन्म होता है। और इसे किसी प्रयासपूर्ण ढंग से नहीं किया जा सकता है। जब तुम पूरी तरह से, आत्यंतिक रूप से सारे प्रयासों में असफल हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर धार्मिकता का प्रादुर्भाव होता है। तब तुम सच्चे अर्थों में धार्मिक और आध्यात्मिक हो जाते हो। आध्यात्मिक होने के लिए किसी प्रकार की सफलता की आवश्यकता नहीं होती है।
.....क्षण -क्षण वर्तमान में जीने की आदत कैसे......?'
धर्म का आदत से कोई लेना देना नहीं है। धर्म का आदत से कोई संबंध नहीं है। आध्यात्मिकता कोई आदत नहीं है, आध्यात्मिकता तो जागरूकता है, और आदत जागरूकता के ठीक विपरीत होती है। आदत का मतलब ही मूर्छा होता है, बेहोशी होता है। लेकिन अधिकांश लोग इसी भांति जीए चले जाते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई आदमी सिगरेट पीता है, तो वह उसकी एक आदत बन जाती है।
हम कब कहते हैं कि सिगरेट पीना एक आदत बन गयी है? जब सिगरेट पीना इतना स्वचालित हो जाता है कि वह उसे छोड़ नहीं सकता है, तब हम कहते हैं कि यह एक आदत बन गयी है। अब अगर वह सिगरेट नहीं पीए, तो उसे बड़ी परेशानी और उलझन महसूस होती है। उसे सिगरेट पीने की ऐसी तलब उठती है कि वह उसे रोक नहीं पाता है, उसे हर हाल में सिगरेट पीना ही पड़ती है, अब सिगरेट पीना उसकी एक आदत बन चुकी है। इसी ढंग से हम प्रार्थना को भी अपनी आदत बना लेते हैं। हम रोज पूजा-प्रार्थना करते हैं, फिर धीरे - धीरे वह पूजा-प्रार्थना भी धूम्रपान की भांति हो जाती है। फिर अगर पूजा-प्रार्थना नहीं करो तो कुछ खाली -खाली सा लगता है।
इसे तुम धार्मिकता कहते हो? तो फिर धूम्रपान को धार्मिकता क्यों नहीं कहते हो? धूम्रपान में क्या गलत है?
धूम्रपान भी एक मंत्र हो सकता है। एक मंत्र के जाप में तुम क्या करते हो? तुम किसी निश्चित शब्द को दोहराए चले जाते हो, तुम राम, राम, राम, राम. कहते हो। ठीक ऐसे ही धूम्रपान है। तुम सिगरेट का धुआं भीतर खींचते हो, फिर उसे बाहर फेंकते हो, तुम भीतर खींचते हो यह सिगरेट का धुआं बाहर फेंकना और भीतर खींचना मंत्र बन सकता है। यही है भावातीत ध्यान-ट्रांसेनडेंटल मेडीटेशन,टी एम.।
नहीं, धर्म का आदतो से कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का आदतो से कोई संबंध नहीं है। हम सोचते हैं कि धर्म का संबंध अच्छी आदतो से है, बुरी आदतो से नहीं- धूम्रपान बुरी आदत है पूजा -प्रार्थना करना अच्छी आदत है। लेकिन सभी आदतें हमारी मूर्छा से संचालित होती हैं, और धर्म है अमूर्छा।
ऐसा भी संभव है कि कोई व्यक्ति अच्छा करने का इतना अभ्यस्त हो जाए कि उसके लिए बुरा करना असंभव ही हो जाए, लेकिन इससे वह कोई आध्यात्मिक नहीं हो जाएगा। इससे समाज में जीने में सुविधा हो सकती है। इससे अच्छे नागरिक बन सकते हो, इससे समाज में आदर-सम्मान मिल