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सकेंगे। तब बच्चा भाषा का उपयोग बिना उद्विग्न और विचलित हुए कर पाएगा। अभी तो भाषा हमें विचलित कर देती है।
तो क्या करें? चीजों को बिना किसी नाम के, बिना किसी लेबल के चिपकाए, बिना अच्छा-बुरा कहे, बिना किसी विभाजन के देखना प्रारंभ करो। बस, सत्य को देखो और बिना किसी निर्णय के, निंदा और प्रशंसा के उसे अपने अस्तित्व में उतरने दो। और फिर जो कुछ भी हो सत्य को अपनी नग्नता में मौजूद रहने दो। बस, तुम सत्य के लिए खुले हुए रहो। और भाषा का, शब्दों का उपयोग कैसे कम से कम किया जाए यह सीखो। भीतर चलते हुए सतत विचारों को, संस्कारों को कैसे विस्मृत किया जाए यह सीखो।
ऐसा कोई एकदम से नहीं हो जाएगा। इसे क्रमिक रूप से, धीरे - धीरे करना होगा। केवल तभी अंत में धीरे – धीरे एक ऐसी अवस्था आएगी, जब तुम अपने मन को साक्षीभाव से देख सकोगे। फिर ऐसा कहने की भी जरूरत नहीं है कि 'मैं मन नहीं हूं।' अगर तुम मन नहीं हो, तो फिर इस बात को कहने में भी क्या सार है? फिर तुम मन नहीं हो। और अगर तुम मन हो, तो यह दोहराने में भी क्या सार है कि तुम मन नहीं हो? तुम मन नहीं हो, इसे केवल दोहराने भर से, इस बात का अनुभव या बोध नहीं हो जाएगा।
थोड़ा इस पर ध्यान देना, कहना कुछ भी मत। मन हमारे भीतर सड़क पर चलते हुए यातायात के शोर की भांति निरंतर मौजूद रहता है। उसे ध्यान से देखना। अपने को एक ओर हटा लेना, और विचारों की भीड़ को ध्यान से देखना। देखना कि यही है मन। किसी भी तरह का प्रतिरोध या विरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है, बस देखना।
और देखते -देखते ही एक दिन अचानक चेतना छलांग लगा लेती है, रूपांतरित हो जाती है। चेतना में आमूल रूपांतरण घटित हो जाता है -अगर तुम द्रष्टा हो, देखने वाले हो, तो अचानक तुम दृश्य से द्रष्टा में छलांग लगा जाते हो, तुम द्रष्टा हो जाते हो। उस घड़ी, उस क्षण तुम्हें इस बात का बोध हो जाता है, कि तुम मन नहीं हो।
इसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह कोई मन की कल्पना नहीं है। उस क्षण, उस घड़ी तुम जान लेते हो -इसलिए नहीं कि पतंजलि कह रहे हैं, इसलिए नहीं कि तुम्हारी बुद्धि कह रही है, तुम्हारी समझ कह रही है, तुम्हारा तर्क कह रहा है। फिर कोई कारण नहीं होता है, बस ऐसा होता है। तुम्हारे भीतर सत्य का विस्फोट हो जाता है, सत्य स्वयं को तुम्हारे सामने. उदघाटित कर देता है, प्रकट कर देता है।
और तब मन इतना पीछे छूट जाता है कि तुम स्वयं पर ही हंसोगे कि अब तक तुमने माना कैसे कि तुम मन हो, कैसे तुमने विश्वास किया कि तुम शरीर हो। तब यह बात ही अपने आप में व्यर्थ और असंगत मालूम होती है। फिर तुम अभी तक की अपनी मूढ़ताओं पर हसोगे।