Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 04
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 456
________________ लेकिन फिर भी विज्ञान ने जो कुछ खोजा है वह वस्तुत: कोई अन्वेषण नहीं है; वह पुनर्जन्वेषण है। योग इसके विषय में कम से कम पांच हजार वर्ष पहले से बात कर रहा है। योग उस ऊर्जा को प्राण कहता है, यह प्राण शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत अर्थपूर्ण है। यह संस्कृत की दो मूल धातुओं से आया है। एक है प्रा। प्रा का अर्थ होता है ऊर्जा की प्राथमिक इकाई, ऊर्जा की सर्वाधिक आधारभूत इकाई। और ण का अर्थ होता है ऊर्जा। प्राण का अर्थ है ऊर्जा की सर्वाधिक आधारभूत इकाई। पदार्थ तो केवल सतह पर है, ऊपर-ऊपर है। प्राण ही है जो वास्तविक है -और वह वस्तु की भांति तो बिलकुल भी नहीं है। वह वस्तु की भांति नहीं है या फिर उसे ना-कुछ कह सकते हैं -नथिंग। नथिंग का मतलब है नो -थिंग। ना-कुछ का मतलब है वस्तु नहीं। ना-कुछ का अर्थ कुछ भी न होना नहीं है; ना - कुछ का तो केवल इतना ही अर्थ है कि वह कुछ नहीं है, कोई वस्तु नहीं है। वह ठोस नहीं है, वह थिर नहीं है, वह प्रकट नहीं है, वह साकार नहीं है। वह मौजूद है, लेकिन फिर भी उसे छुआ नहीं जा सकता। वह मौजूद है, लेकिन फिर भी उसे देखा नहीं जा सकता। वह प्रत्येक घटना के साथ भी है और प्रत्येक घटना के पार भी है। फिर भी वह सर्वाधिक आधारभूत इकाई है, उसके बाहर नहीं हुआ जा सकता। संपूर्ण जीवन की आधारभूत इकाई प्राण ही है। पेड़ -पौधे, पश् -पक्षी, कंकड़ -पत्थर परमात्मा, सभी अलग - अलग तल पर, अलग - अलग समझ लिए गए हैं, जबकि वे सभी एक ही प्राण की अभिव्यक्ति हैं। वही प्राण अलग – अलग रूपों में, अलग- अलग ढंगों में अभिव्यक्त होता है - लेकिन फिर भी आधारभत इकाई एक ही है। जब तक तम स्वयं के भीतर प्राण को नहीं जान लेते, तब तक परमात्मा को भी नहीं जान सकोगे। और अगर तुम उसे स्वयं के भीतर नहीं जान सकते, तो तुम उसे बाहर भी नहीं जान सकते, क्योंकि भीतर तो वह तुम्हारे निकटतम है। इसीलिए पतंजलि ने इसे अल्वर्ट आइंस्टीन से भी पांच हजार वर्ष पूर्व जान लिया था। इस बात को समझने के लिए विज्ञान के लिए पांच हजार वर्ष का समय काफी लंबा समय है। लेकिन विज्ञान ने इस बात को समझने के लिए जो भी प्रयास किए बाहर – बाहर से किए। पतंजलि ने अपने ही अस्तित्व की गहराई में इबकी लगाकर उसे जाना, उनका वह आत्मगत अनुभव था। और विज्ञान : जानने की कोशिश वस्तुगत रूप से करता रहा। अगर किसी के बारे में वस्तुगत ढंग से कुछ जानना चाहा तो फिर तुमने बहुत लंबा रास्ता पकड़ लिया। इसीलिए विज्ञान को इतनी देर लगी। अगर तुम अपने भीतर उतर जाओ, तो तुमने उसे जानने का सबसे छोटा मार्ग खोज लिया। साधारणतया तो हमें कुछ पता ही नहीं है कि हम कौन हैं? हम कहां हैं? हम यहां कर क्या रहे हैं? लोग मेरे पास आकर कहते हैं, 'हम कौन हैं? हम किसलिए हैं? हम यहां पर क्या कर रहे हैं?' मैं उनकी उलझन को समझ सकता हूं, लेकिन जहां कहीं भी तुम हो, और जो कुछ भी तुम कर रहे हो, समस्या तो वही की वही रहने वाली है -जब तक कि तुम उस स्रोत को ही न जान लो जहां से तुम आते हो, जब तक तुम अपने अस्तित्व के उस आधारभूत ढांचे को ही न समझ लो, जब तक तुम अपने प्राण को, अपनी ऊर्जा को ही न जान लो -समस्या रहने ही वाली है।

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