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होने वाला है। वह तो केवल परिणाम की घोषणा की प्रतीक्षा में रहती है। तुम किसी भी ढंग से स्त्री से तर्क करो सब व्यर्थ होने वाला है। वह पहले से ही परिणाम के संबंध में सुनिश्चित होती है
अंतर्बोध, निश्चयात्मक होता है। इसीलिए स्त्रियों को पहले से ही दूर का बोध हो जाता है। स्त्रियां ज्यादा दिव्य दृष्टि संपन्न होती हैं, और स्त्रियों को बहुत सी अंतर्बोध की घटनाएं घटित होती हैं। सम्मोहन, टेलीपेथी, अतीन्द्रिय दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण यह सब स्त्रियों के जगत से संबंधित हैं। इसी से संबंधित मैं तुम्हें एक बात बताना चाहूंगा। जादू-टोने की कला स्त्रियों की कला –कौशल रही है। इसीलिए इसे जादू -टोना कहते हैं। जादूगरनियों का सारा संसार अंतर्बोध से जुड़ा रहा है। पंडित -पुरोहित इस जादू -टोने की कला के विरोध में थे, क्योंकि उनका तो पूरा संसार ही बुद्धि से जुड़ा हुआ था। स्मरण रहे, जादू -टोने से संबंधित लगभग सभी स्त्रियां ही थीं, और लगभग सभी पंडित -पुरोहित पुरुष थे। पहले तो पंडित - पुरोहितों ने जादू-टोने वाली स्त्रियों को जला डालने की कोशिश की। मध्ययुग में यूरोप में इसी कला के कारण हजारों स्त्रियों को जला दिया गया, क्योंकि पंडित-पुरोहितों की समझ के बाहर था अंतर्बोध के जगत को समझना। उनका इसमें विश्वास ही न था-वह बात ही उन्हें खतरनाक लगती थी। वे जादू -टोने वाली स्त्रियों को पूरी तरह से मिटा देना चाहते थे।
और उन्होंने उसे पूरी तरह से नष्ट भी कर दिया। उन्होंने संवेदनशीलता के सबसे सुंदर माध्यम, सूक्ष्म ज्ञान के सुंदरतम साधन, बुद्धि के जगत से ऊपर के श्रेष्ठतर संभावनाओं के सबसे सुंदर जगत को नष्ट कर देने का प्रयास किया। जहां कहीं भी उन्हें कोई जादू -टोने वाली स्त्री मिली, उन्होंने उसे उसकी हत्या कर दी। और पंडित -पुरोहितों ने स्त्रियों को इतना भयभीत कर दिया कि स्त्रियों ने भय के कारण उस क्षमता को ही खो दिया।
अब फिर से वैसी ही परिस्थिति मौजूद हो गई है। मनोविश्लेषक अंतर्ज्ञान की कला के विरुद्ध हैं -वे सब पुरुष हैं। अब मनोविश्लेषकों ने पंडित – पुरोहितों का स्थान ले लिया है –वे सब पुरुष हैं। फ्रायडवादी, एडलर के पीछे चलने वाले, वे सभी पुरुष हैं। वे स्त्री के विरुद्ध हैं, स्त्री के खिलाफ हैं। और क्या तुम्हें मालूम है उनके यहां आने वाले अधिकांश रोगियों में स्त्रियां ही होती हैं। इसमें जरूर कुछ बात है।
और जब स्त्री जादूगरनियां हुआ करती थीं तो उनके अधिकांश रोगी पुरुष थे। मुझे इस बात से आश्चर्य होता है, लेकिन यह वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए। जब स्त्री जादूगरनिया थीं तो उनके रोगी पुरुष थे बा.धे अंतर्बोध का सहयोग चाह रही थी, पुरुष स्त्री की मदद चाह रहा था। अब इसके ठीक विपरीत हो रहा है। सभी मनोविश्लेषक पुरुष हैं और उनकी सभी रोगी स्त्रियां हैं। अब अंतर्बोध इतना अपंग और विनष्ट हो चुका है कि उसे बुदधि की मदद लेनी ही पड़ रही है। श्रेष्ठ