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प्रवचन 75 - अंतर ब्रह्मांड के साक्षी हो जाओ
योग-सूत्र:
मुर्धज्योतिषि सिदधदर्शनम।। 33।।
सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड़ने की क्षमता मिल जाती है।
प्रातिभावा सर्वम्।। 34।।
प्रतिभा के द्वारा समस्त वस्तुओं का बोध मिल जाता है।
ह्रदये चित्तसंवित्।। 35//
हृदय पर संयम संपन्न करने से मन की प्रकृति, उसके स्वभाव के प्रति जागरूकता आ बनती है।
| एक क्रमिक विकास है। केवल ऐसा ही नहीं है कि मनुष्य विकसित हो रहा है, वह विकास
का माध्यम भी है वह स्वयं ही विकास है। आदमी के ऊपर यह एक अदभूत उत्तरदायित्व है और इससे आनंदित भी हुआ जा सकता है, क्योंकि यही तो मनुष्य का गौरव और गरिमा है। भौतिक पदार्थ तो प्रारंभिक बात है, परमात्मा अंत है- भौतिक पदार्थ अल्फा पाइंट प्रारंभिक-तत्व है, परमात्मा ओमेगा पाइंट, अंतिम शिखर है। मनुष्य इन दोनों के बीच का सेतु है – भौतिक पदार्थ मनुष्य से गुजरकर परमात्मा में रूपांतरित हो जाता है। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि परमात्मा कहीं बैठकर प्रतीक्षा कर रहा है। परमात्मा हमसे ही विकसित हो रहा है, परमात्मा हमारे माध्यम से ही अस्तित्ववान हो रहा है। मनुष्य ही पदार्थ को परमात्मा में रूपांतरित कर रहा है।