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अ -मन की अवस्था तक पहुंचने के दो मार्ग हैं। एक तो तंत्र का मार्ग है. मन गिर जाए, तो विभेद भी बिदा हो जाता है। दूसरा है योग का मार्ग विभेद गिर जाए, तो मन बिदा हो जाता है। इन दोनों में से कोई सा भी मार्ग चुना जा सकता है। दोनों का अंतिम परिणाम एक ही है-अंतत: व्यक्ति एक हो जाता है। स्वयं के साथ एक समस्वरता एवं सामंजस्य हो जाता है।
हृदये चित्तसविता
तब चैतन्य का वास्तविक स्वभाव क्या है, यह ज्ञात हो जाता है।
चैतन्य को अंग्रेजी में कांशसनेस कहते हैं। कांशसनेस ऐसा प्रतीत होता है जैसे अनकांशस का विपरीत हो। चित्तसवित शब्द अनकांशस के विपरीत नहीं है। चैतन्य में, होश में, अमूर्छा में तो सभी कुछ समाहित होता है. बेहोशी, मर्छा भी चैतन्य की ही सोयी हई अवस्था है, इसलिए उसमें कोई विरोधाभास नहीं है। चेतन - अचेतन, अमूर्छा -मूर्छा सभी-जब व्यक्ति अपनी जागरूकता को संयम पर, हृदय पर एकाग्र कर देता है तो चैतन्य का वास्तविक स्वभाव उदघटित हो जाता है।
योग में हृदय केंद्र को अनाहत चक्र, अनाहत केंद्र कहते हैं। तुमने एक प्रसिद्ध झेन कोआन के बारे में सुना होगा....... जब कोई शिष्य सदगुरु के पास आता है, तो सदगुरु उसे ध्यान करने के लिए कोई बात पकड़ा देता है। उनमें से यह कोआन बहुत ही प्रसिद्ध है।
एक सदगुरु अपने शिष्य से कहता है, 'जाओ, एक हाथ की ताली की आवाज सुनो।'
अब ऐसे देखो तो यह बात बड़ी ही असंगत सी मालूम होती है। क्योंकि एक हाथ से ताली तो बज ही नहीं सकती है और एक हाथ की ताली की आवाज भी नहीं हो सकती है। आवाज करने के लिए तो दो हाथ चाहिए ही, पहले बजाओ और आवाज करो। आहत का अर्थ है. वंद्व, अनाहत का अर्थ है दवंदव -विहीन। अनाहत का अर्थ है एक हाथ की ताली।
जब भीतर की सभी आवाजें विलीन हो जाती हैं, तो उस आवाज को, उस ध्वनि को सुना जा सकता है जो सदा से वहां विदयमान है, जो कि अस्तित्व का स्वभाव है, जो अस्तित्व का वास्तविक स्वभाव है -जो शाति की, सन्नाटे की, मौन की ध्वनि है, या कहें कि वह ध्वनि विहीन ध्वनि है। हृदय को अनाहत चक्र कहकर पुकारा जाता है, वह स्थान जहां निरंतर बिना किसी दवंदव के एक ध्वनि निर्मित होती रहती है -वही है ध्वनियों की ध्वनि, या कहें शाश्वत ध्वनि।
हिंदुओं ने इसी ध्वनि को ओंकार का नाद या ओम कहा है। यह ध्वनि अपने से सुनाई नहीं देती, इस ध्वनि को सुनना होता है। इसलिए जो लोग – ओम, ओम, ओम दोहराए चले जाते हैं वे मूढ़ता कर रहे हैं। ओम को दोहराने मात्र से वास्तविक ओंकार को, उसकी वास्तविक ध्वनि को, नाद को नहीं सुना जा सकता। क्योंकि ऊपर से ओंकार को दोहराना ताली बजाकर ध्वनि निर्मित करने जैसा है।