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तुम्हें भारत में ऐसे बहुत से साधु मिल जाएंगे, जिनकी नाक किसी न किसी रूप में कटी ही हुई है। जब मैं कहता हूं, 'साधुओं और योगियों की बुरी संगत,' तो मेरा अभिप्राय ऐसे ही लोगों से होता है। जब मैं कहता हूं उनकी नाक कट चुकी है, तो मेरा मतलब होता है कि उन्होंने अपने किसी न किसी भाग को अस्वीकृति दे दी है। उन्होंने अपने को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया है -उनकी नाक कटी हुई है। किसी ने अपनी कामवासना को अस्वीकार किया हुआ है, किसी ने अपने क्रोध पर नियंत्रण किया हुआ है, किसी ने अपने लोभ को अस्वीकृति दी हुई है -किसी ने किसी और बात को। लेकिन ध्यान रहे, अस्वीकृत किया हुआ भाग बदला लेता है, और यही साधु -संन्यासी तुम्हारी नाक भी काट लेना चाहते हैं।
जब मैं कहता हूं, 'साधुओं और योगियों की बुरी संगत,' तो मेरा मतलब उन लोगों से है जिन्होंने बिना समझ के बहुत सी बातों का प्रयास किया है और स्वयं को बहुत तरह से अपंग बना लिया है। अगर तुम उनके साथ रहो, तो तुम भी अपंग बन जाओगे।
इन अर्थों में चिन्मय अपंग हो गए हैं। जब मैं उनकी ओर देखता हं, तो मैं समझ सकता ह कि वे कहां पर अपंग हैं। और एक बार अगर वह इसे समझ लें, तो वे उसे छोड़कर उस त हो सकते हैं, इसमें कोई अड़चन नहीं है। नाक फिर से आ सकती है। नाक कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम सच में ही काट दोगे। वह फिर से बढ़ सकती है। बस, एक बार वे इसे जान लें, समझ लें।
उदाहरण के लिए, उन्होंने अपनी हंसी -मजाक की क्षमता को खो दिया है। वे हंस नहीं सकते हैं। अगर वे हंसते भी हैं –तो इसके लिए उन्हें बड़ा प्रयास करना पड़ता है -तुम देख सकते हो कि उनका चेहरा कितना नकली है। वे एक ईमानदार और सच्चे इंसान हैं, लेकिन इसमें गंभीर होने की क्या आवश्यकता है। सच्चाई एक बात है -वे ईमानदार हैं। गंभीरता एक रोग है। लेकिन गंभीरता
चाई को एक समझने की गलती कभी मत करना। तुम्हारा चेहरा लंबा, उदास, लटका हुआ हो सकता है, इससे अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है, और न ही इससे अध्यात्म के मार्ग में कोई मदद मिलने वाली है। असल में तो अगर तुम एकदम रूखे -सुखे, बिना हंसी -मजाक के जीते हो, तुम्हारा जीवन रूखा -सूखा और नीरस हो जाएगा। हंसी -मजाक तो जीवन में रस घोलने की तरह है. वह जीवन में एक तरलता और प्रवाह देती है।
लेकिन भारत में सभी साधु -संत गंभीर होते हैं। उन्हें गंभीर होना ही पड़ता है, वे हंस नहीं सकते - क्योंकि अगर वे हंसते हैं तो लोग सोचेंगे कि वे भी उनके जैसे ही साधारण हैं-अन्य दुसरे
लोगों की भांति वे भी हंस रहे हैं। भला एक साधु कैसे हंस सकता है? उसे तो कुछ न कुछ असाधारण होना ही चाहिए। यह भी अहंकार का अपना एक आयोजन है।
मैं तुम्हें साधारण होने को कहता हूं, क्योंकि असाधारण होने की कोशिश करना बहुत ही साधारण बात है – क्योंकि हर कोई व्यक्ति असाधारण होना चाहता है। और साधारण होने को स्वीकार करना बहुत