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तो पहले तो पूरी तरह से मौन और शांत हो जाओ, सभी विचारों को गिर जाने दो, थिर हो जाओ और अचानक वह ध्वनि वहा विद्यमान हो जाती है - वह ध्वनि तो हमेशा से ही वहा थी, लेकिन उस
ध्वनि को सुनने के लिए हम ही मौजूद न थे। वह बहुत ही सूक्ष्म ध्वनि है। जब मन से बाहर का संसार बिदा हो जाता है और व्यक्ति केवल इस ध्वनि के प्रति ही जागरूक और सचेत हो जाता है, तब धीरे – धीरे वह इस ध्वनि के प्रति ग्राहक हो जाता है, इस ध्वनि को सुनने के लिए उपलब्ध हो जाता है –फिर धीरे – धीरे इस ध्वनि को सुनना संभव है। फिर इस ध्वनि को सुना जा सकता है।
अगर एक हाथ की ताली सुन ली, तो फिर परमात्मा को और संपूर्ण अस्तित्व को सुनना संभव है।
पतंजलि हमें उस शिखर - बिंदु तक, ओमेगा पाइंट तक धीरे – धीरे एक - एक कदम लेकर चल रहे हैं। यह तीनों सूत्र बहुत प्रतीकात्मक हैं। इन सूत्रों पर फिर फिर मनन करना, इन पर ध्यान करना। और अपने अंतर - अस्तित्व में इन सूत्रों को अनुभव करना। यह सूत्र परमात्मा के जगत के द्वार को खोलने की कुंजियां बन सकते हैं।
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आज इतना ही।
प्रवचन 76 धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं
प्रश्न- सार:
1. क्या आप भी कभी किसी दुविधा में पड़े हैं?
2. बुद्धि, अंतबोध और प्रतिभा के प्रासंगिक महत्व को समझाएं।
3. इस शइक्त को, 'ज' समझाएं योगियों और सार्धुक्ती बुरी संगत में ।'
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4 अहंकार सभी परिस्थितियों में पोषित होता मालूम पड़ता है तो ऐसे में क्या करें?