________________
की शिक्षा के लिए किसी महावीर की आवश्यकता नहीं है अहिंसक होने के लिए उन्हें किसी जैनदर्शन या सिद्धांत की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
हां, एक व्यापारी को अहिंसा के दर्शन की आवश्यकता है इसीलिए सारे जैन लोग व्यापारी हैं। बस, गद्दी पर बैठे-बैठे ऊपर से मुस्कुराते रहना। और करोगे भी क्या और अगर फिर तुम हिंसक हो जाओ तो क्या बड़ी बात है तब स्वयं पर नियंत्रण रखने के लिए अहिंसा का दर्शन चाहिए होता है। वरना बिना किसी कारण के दूसरे की गर्दन तुम क्यों पकड़ोगे। लेकिन जब कोई आदमी लकड़ियां काटता है, तो उसे अहिंसा के सिद्धांत की, अहिंसा के दर्शन की जरूरत ही नहीं होती है जब शाम को थककर वह घर लौटता है तो वह हिंसा को पूरी तरह फेंक चुका होता है, वह अहिंसक होकर घर वापस लौटता है।
इसीलिए पतंजलि रेचन की बात ही नहीं करते हैं। उस समय उसकी कोई जरूरत नहीं थी। उस समय समाज बिलकुल आदिम और सरल अवस्था में जी रहा था। लोग बालकों जैसे निर्दोष थे, लोग बिना किसी दमन के जी रहे थे। रेचन की आवश्यकता तो तब होती है जब मनुष्य का मन दमित होने लगता है। समाज जितना ज्यादा दमित होगा, उतनी ही अधिक रेचन की विधियों की आवश्यकता होगी। तब भीतर के दमन को बाहर लाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा ।
और मैं तुम से कहना चाहता हूं कि अपना क्रोध किसी दूसरे पर फेंकने की अपेक्षा कहीं ज्यादा अच्छा होगा सक्रिय ध्यान करना। क्योंकि अगर तुम अपना क्रोध किसी दूसरे पर फेंकते हो, तो तुम्हारे
संचित कर्मों में वृद्धि होती चली जाएगी। अगर सक्रिय ध्यान में तुम सभी प्रकार के दमित भावों का, दमित आवेगों का रेचन कर देते हो, तो तुम्हारे संचित कर्म खाली हो जाते हैं। तब तुम अपना क्रोध किसी दूसरे की तरफ नहीं फेंकते। तब फिर अगर तुम क्रोधित भी होते हो तो बस क्रोधित ही होते हो – किसी व्यक्ति विशेष के प्रति क्रोधित नहीं होते हो। रेचन करते समय तुम चीखते-चिल्लाते हो लेकिन किसी व्यक्ति विशेष के विरोध में नहीं। और रेचन करते समय तुम जब रोते हो, तो बस रोते हो। और रेचन करते समय रोना, चीखना-चिल्लाना, क्रोधित होना, तुमको स्वच्छ कर जाता है और इस कारण फिर भविष्य में किसी भी प्रकार के कर्मों की कोई श्रृंखला निर्मित नहीं होती।
-
तो पतंजलि संयम के विषय में जो कुछ कहते हैं, मैं रेचन को भी संयम के अंतर्गत ही रखूंगा। क्योंकि मुझे पतंजलि की चिंता नहीं है, मुझे तुम्हारी चिंता है - और मैं तुम्हें खूब अच्छे से जानता हूं। अगर तुम भीतर के दमित भावों को, आवेगों को बाहर आकाश में नहीं फेंकोगे, तो फिर तुम कहीं न कहीं, किसी न किसी पर तो फेंकोगे ही, और फिर उससे कर्मों की एक श्रृंखला निर्मित होती चली जाएगी।
आने वाले भविष्य में रेचन व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाएगा। क्योंकि आदमी जितना सभ्य होता चला जाएगा, उतनी ही रेचन की आवश्यकता होगी।