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चूंकि हमारा मन पुरुष या स्त्री होने के लिए संस्कारित हो चुका है, और समाज में पुरुष और स्त्री की भूमिकाओं पर बड़ा जोर है, इसलिए बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है। समाज व्यक्ति को सहज जीवन नहीं जीने देता, वह व्यक्ति को एकदम कठोर बना देता है। लड़का और लड़की जैसे ही थोड़े बड़े होते हैं और जब वे समझदार होने लगते हैं तो माता-पिता उन्हें कहने लगते हैं, 'तुम लड़के हो, गुड़िया से मत खेलो। लड़कों के लिए गुड़ियों से खेलना अच्छी नहीं तुम्हें तो बड़े होकर मर्द बनना है। यह खेल तो लड़कियों के लिए हैं।' और पुरुष लड़कियों को तो कुछ समझते ही नहीं हैं।' और तो जैसी, लड़कियों जैसी बातें मत करो, मर्द बनो और एक छोटा बच्चा, जिसे कुछ समझ तो होती नहीं, मर्द बनने की कोशिश करता रहता है और धीरे धीरे इस तरह वह बच्चा अपने स्वभाव से अपनी प्रकृति से दूर होता चला जाता है। वह मर्द तो बन जाता है, लेकिन वह उसके अस्तित्व का आधा हिस्सा ही होता है। और लड़की स्त्री बन जाती है, जो उसके अस्तित्व का आधा हिस्सा ही होती है। लड़की से कहा जाता है कि वृक्षों पर मत चढ़ो वृक्ष पर तो केवल लड़के ही चढ़ते हैं कैसी नासमझी है वृक्ष तो सब के लिए होते हैं। नदी में तैरने मत जाओ, तैरना तो लड़कों का काम है। जब कि नदी तो सब के लिए है - स्त्री-पुरुष सबके लिए है।
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इसी तरह से मनुष्य जाति एक ढांचे में व्यवस्मित होती चली गयी। समाज के द्वारा लड़की को एक 'निश्चित प्रकार की भूमिका दे दी जाती है और लड़के को भी एक निश्चित प्रकार की भूमिका दे दी जाती है। इस ढांचे में उनकी अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव बिलकुल नष्ट ही हो जाता है। वे निश्चित सीमाओं में ही बंधकर रह जाते हैं। पूरे आकासा को देखने की उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है; छोटी-छोटी सीमाएं और झरोखे ही उनके लिए सब कुछ हो जाते हैं।
पुरुष और स्त्री को समाज के द्वारा एक तरह का ढाचा दे दिया गया है - वह तुम्हारा वास्तविक स्वरूप नहीं है। उस ढांचे के साथ तादात्म्य मत बना लेना। उस ढांचे से मुक्त हो जाना। जब व्यक्ति इस सामाजिक ढांचे की पकड़ से मुक्त होने लगता है, समाज के बंधनों से जब वह मुक्त लगता है, और सामाजिक उपेक्षा और अस्वीकृति को आत्मसात कर लेता है, तो वह अविश्वसनीय, अकल्पनीय रूप से, समृद्ध हो जाता है। तब उसका होना पूर्ण हो जाता है।
और जब मैं कहता हूं कि तुम धार्मिक हो जाओ तो मेरा अभिप्राय भी यही है। धार्मिक होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम कैथोलिक पादरी हो जाओ, या बौद्ध भिक्षु हो जाओ, या जैन मुनि हो जाओ। वे सब तो मूढताएं हैं। मैं तो चाहता हूं कि तुम संपूर्ण अर्थों में धार्मिक हो जाओ। तुम समग्र हो जाओ, पूर्ण हो जाओ। जो भी समाज के द्वारा निंदित किया गया है उसे फिर से ग्रहण कर लो, उसे फिर से प्राप्त कर लेने से डरो नहीं, भयभीत मत होओ। अगर तुम पुरुष हो, तो कभी भी स्त्री - स्वरूप से मत घबराओ ।
अगर कभी कोई मर जाता है, तो तुम पुरुष होने के कारण रो नहीं सकते हो क्योंकि आंसू तो केवल स्त्रियों के लिए ही होते हैं। आंसू - आंसुओ में कितना सौंदर्य होता है - और समाज में पुरुषों के लिए