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करने के लिए बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना की है और ऐसे लोगों ने ही मनुष्य जाति को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया है। इन पांच हजार वर्षों में ये लोग पतंजलि की व्याख्या पर व्याख्याएं करते चले
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जा रहे हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि व्याख्याओं की भी व्याख्याएं होती चली जा रही हैं। इन व्याख्याओं के जाल में पतंजलि तो न जाने कहां खो गए हैं, उनको खोज पाना बहुत कठिन है।
भारत में यह संकट हर उस बुद्धपुरुष के साथ रहा है जिसने भी सत्य को मानव-चेतना के प्रति उदघाटित किया है। लोग ऐसे बुद्धपुरुषों की निरंतर व्याख्या करते रहे हैं, और ये लोग किसी स्पष्टता की अपेक्षा भ्रम ही अधिक फैलाते हैं, क्योंकि पहली तो बात यह है कि वे शिष्य ही नहीं होते। और अगर उनमें से कुछ लोग शिष्य हो भी गए हों, तो उन्होंने उस गहराई को नहीं छुआ होता कि वे उसकी ठीक से व्याख्या कर सकें। केवल भक्त ही लेकिन साधारणतया भक्त तो इसकी फिकर ही नहीं लेता है।
इसीलिए मैंने पतंजलि को बोलने के लिए चुना है। इस व्यक्ति पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे बहुत ही दुर्लभ और विरले व्यक्ति हैं जो पतंजलि की ऊंचाई को छू सकें उनकी वैज्ञानिक दृष्टि तक पहुंच सकें। पतंजलि ने धर्म को करीब करीब विज्ञान ही बना दिया है। वे धर्म को व्यर्थ के रहस्य - जालों से बाहर लेकर आए हैं, लेकिन टीकाकार और व्याख्याकार इसी कोशिश में हैं कि पतंजलि के सभी सूत्रों को जोर-जबर्दस्ती से फिर से रहस्यवाद के संसार में धकेल दिया जाए। यही उनके न्यस्त स्वार्थ हैं। अगर पतंजलि लौटकर आकर उन व्याख्याओं को देखें जो उनके सूत्रों पर की गयी है, तो उन्हें भरोसा ही नहीं आएगा।
और शब्द बड़े खतरनाक होते हैं। शब्दों के साथ बड़े ही आसानी से खिलवाड़ किया जा सकता है। शब्द वेश्याओं की भांति होते हैं, शब्दों का उपयोग तो किया जा सकता है, लेकिन उन पर भरोसा बिलकुल नहीं किया जा सकता। प्रत्येक नए व्याख्याकार, टीकाकार के साथ उनका अर्थ बदलता चला जाता है-छोटा सा परिवर्तन, एक अल्पविराम का यहां से वहा बदलना और संस्कृत बहुत ही काव्यपूर्ण भाषा है –संस्कृत में प्रत्येक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं - तो उसमें किसी बात को रहस्यपूर्ण बना देना बहुत आसान है।
मैंने सुना है, एक बार दो मित्र एक होटल में ठहरे। वे पहाड़ों की यात्रा पर थे और वे सुबह - सुबह उठकर बाहर जाना चाहते थे वे सुबह तीन बजे ही निकल जाना चाहते थे -पास की चोटी पर जाकर उन्हें सूर्योदय देखना था। तो रात को उन्होंने अलार्म लगा दिया। जब अलार्म बजा तो उनमें जो बड़ा आशावादी था, वह बोला, 'गुड मार्निंग, गॉड।' दूसरा जो निराशावादी था, वह बोला, ' 'गुड गॉड मार्निंग?'
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शब्द दोनों के वही हैं, लेकिन फिर भी भेद बहुत बड़ा है।