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निस्संदेह जब शिव अपनी पत्नी के साथ प्रेम करते हैं, तो वह कोई साधाराग प्रेम नहीं होता। और वे द्वार-दरवाजे बंद करके प्रेम नहीं करते, द्वार -दरवाजे भी खुले थे।
उस समय देवताओं के जगत में कोई आपातकालीन परिस्थिति आ गयी थी। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु और बहुत से देवताओं की भीड़ शिव के पास आई कि वे उनकी इस आपातकालीन समस्या को सुलझा दें। तो वे सब शिव के पास पहंचे-शिव का एकांत तो समाप्त हो गया, और वहां एक बाजार बन गया लेकिन शिव प्रेम में इतने गहन रूप से डूबे हुए थे कि उन्हें कुछ ध्यान ही न रहा कि उनके चारों तरफ खड़ी भीड़ उन्हें देख रही है।
सारे देवता तो शिव को प्रेम करते हुए देखने में ही मग्न हो गए। वे वहां से हट भी नहीं सकते थे, क्योंकि कुछ अभूतपूर्व वहां पर घट रहा था। कुछ अदभुत घुटना घट रही थी। उन दोनों के प्रेम की गहराई में ऊर्जा अपने परम शिखर पर थी, देवताओं की भीड़ भी उस ऊर्जा को अनुभव कर रही थी। तो वे देवता वहां से जाना भी नहीं चाहते थे। और साथ वे उन्हें विध्न भी नहीं चाहते थे, क्योंकि उनकी प्रेम में तल्लीनता, वह पूरा का पूरा कृत्य पवित्र और दिव्य था।
और शिव प्रेम में गहरे और गहरे डूबते ही चले गए। देवताओं को तो चिंता सताने लगी कि यह कभी समाप्त भी होगा या नहीं। और वे एक ऐसी समस्या से घिरे हुए थे कि उन्हें तुरंत समाधान की जरूरत थी। लेकिन शिव तो प्रेम में बिलकुल खोए हुए थे। वे और देवी तो' जैसे वहां थे ही नहीं-पुरुष
और स्त्री पूर्ण रूप से आपस में विलीन हो गए थे। प्रेम में वे दोनों एक हो गए थे, उनकी ऊर्जाएं एक दूसरे में विलीन हो गई थीं, उनकी ऊर्जा एक ही लय में, एक ही स्वर में धड़क रही थीं। वे देवता वहीं पर रुक जाना चाहते थे, लेकिन साथ ही वे दूसरे देवताओं से भयभीत भी हो रहे थे। ऐसे ही तार्किक मन काम करता है। उन्हें शिव और पार्वती को प्रेम में तल्लीन और डूबा हुआ देखने में बहुत मजा आ रहा था, लेकिन साथ ही वे भयभीत भी थे। साथ ही क्योंकि अगर दूसरे लोग उन्हें इस तरह से देखते हए और उसका मजा लेते हए देख लेते, तो उनके सम्मान को, उनकी प्रतिष्ठा को बडा धक्का पहंचता। इसलिए उन्होंने शिव को अभिशाप्त दिया कि. 'आज से तुम्हारी रूपाकृति संसार से लुप्त हो जाएगी
और तुम्हें सदा लिंग के प्रतीक के रूप में ही स्मरण किया जाएगा'-योनी में लिंग, चंद्र में सूरज, कमल में रत्न।' अब तुम्हें लिंग के रूप में ही स्मरण किया जाएगा।' यही उन देवताओं का अभिशाप था।
ऐसा सदा से होता आया है। मेरे एक मित्र हैं, जो अश्लील साहित्य के बड़े विरोधी हैं, और उनकी पूरी लाइब्रेरी अश्लील पुस्तकों से भरी पड़ी है –एक बार मैं उनके यहां गया था, मैंने उनसे पूछा, 'यह सब क्या है?' वे बोले, 'मुझे यह सब अश्लील पुस्तकें उनकी आलोचना करने के लिए पढ़नी पड़ती हैं। मुझे इस बात के प्रति हमेशा सचेत रहना पड़ता है कि अश्लील साहित्य के जगत में क्या -क्या हो रहा है? क्योंकि मैं अश्लील साहित्य के एकदम खिलाफ हूं।' वे हैं कुछ और बताते कुछ और हैं –उनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर है।