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गया हो, यही तो मैं प्रतिदिन कर रहा हूं। मैं तुम्हारे नाम बदलता रहता हूं, तुम्हें इस बात की अनुभूति देने के लिए कि नाम तो केवल तुम से बंधा हुआ गुब्बारा है, उसे बदला जा सकता है, ताकि नाम के साथ तुम्हारा तादात्म्य टूट जाए।
अहंकार आत्मा के झूठे विकल्प के. अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो इसलिए जब व्यक्ति जान लेता है कि वह कौन है, तो अहंकार की फिर कोई संभावना नहीं रह जाती है।
तुमने मुझसे पूछा है, 'क्या संबद्ध होने का विचार स्वयं में अहंकार उत्पन्न नहीं कर देता है?'
विचार तो अहंकार केवल तभी हो सकता है, जब वह केवल विचार मात्र ही हो। तब तो वस्तुत: यह कहना भी ठीक नहीं है कि अहंकार उसे निर्मित कर सकता है तब तो अहंकार पहले से मौजद ही होता है। यह विचार भी अहंकार के माध्यम से ही आया होता है। अगर अहंकार विलीन हो जाए, तो तुम सच में ही संबोधि को उपलब्ध हो जाओगे. और यही तो है संबोधि का अर्थ : अहंकार से आत्मा में चले जाना, अवास्तविकता से वास्तविकता की ओर चले जाना, मन से अ-मन की ओर चले जाना, शरीर से अ-शरीर की ओर चले जाना। एक बार अगर यह जान लो कि तुम कौन हो, तो फिर मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई भी तुम्हें इसके लिए राजी कर सके कि स्वयं का स्मरण रखने के लिए पैर में गुब्बारा बांध लो। ऐसा असंभव है।
संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति में अहंकार रह ही नहीं सकता है। वह जो कुछ भी कहता हैं. चूंकि तब वह कोई भी बात दावे के साथ कहता है, तो उनके दावे के साथ कही हुई. बात तुम्हें अहंकार पूर्ण लग सकती है। जैसे कृष्ण गीता में अपने शिष्य अर्जुन से कहते हैं, 'सब कुछ छोड्कर मेरी शरण में आ जा। मैं ही हूं संसार को रचने वाला परमात्मा।' इतना अहंकार से भरा हुआ वक्तव्य! क्या इससे बड़े
और अहंकारी को खोजा जा सकता है? और जीसस कहते है : 'परमात्मा के राज्य में मेरे पिता और मैं हम दोनों एक ही हैं। वे कह रहे हैं, 'मैं हूं परमात्मा।' बहुत ही अहंकार से भरा हुआ वक्तव्य है! मंसूर ने उदघोषणा की कि मैं सत्य हूं, मैं परम सत्य हूं – 'अनलहक।' मुसलमान तो बहुत नाराज हो गए मंसूर से, उन्होंने मंसूर को मार ही डाला।, यहूदियों ने जीसस को सूली दे दी। इन लोगों के वचन हमें अहंकार से भरे हुए लगते हैं। उपनिषद कहते हैं, 'अहं ब्रह्मास्मि!' मैं ब्रह्म हूं। मैं पूर्ण हूं, समग्र हूं।
लेकिन ये वचन अहंकार से भरे हुए नहीं हैं, हमने उन्हें गलत समझा है। ये लोग जो कुछ कह रहे हैं वह सत्य है।
मैंने एक ऐसे आदमी के बारे में सुना है -जो अपनी हीनता की ग्रंथि से बहुत चिंतित और परेशान था, इसलिए वह एक एडलेरियन मनोविश्लेषक के पास गया। और मनोविश्लेषक के पास जाकर उसने कहा, 'मैं अपनी हीनता की ग्रंथि से बहुत ज्यादा पीड़ित और परेशान हूं। क्या आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं?' मनोविश्लेषक ने उसकी ओर देखा और कहा, 'लेकिन तुम तो हीन हो ही। इसमें हीनता की ग्रंथि का सवाल ही कहां उठता है। तुम तो हीन हो ही, तो फिर मैं क्या तुम्हारी मदद कर सकता हूं?'