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फिर तीसरा होश. और तुम इसी ढंग से चलते चले जा सकते हो। नहीं, ऐसा नहीं होता है; एक बार होश से भर जाना पर्याप्त होता है।
तो जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो वह होशपूर्ण ही होता है, लेकिन फिर भी वह होश के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है। वह बस पूर्णरूप से चैतन्यपूर्ण होता है, लेकिन उस चैतन्य के लिए किसी विषय-वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। बस, वह तो चैतन्य -मात्र होता है, जैसे कि प्रकाश अपने आसपास के अंधकार को निरंतर प्रकाशित कर रहा हो। उसका कहीं कोई किसी विशेष विषयवस्तु से संबंध नहीं होता है। फिर ऐसा नहीं होता है कि कुछ विशेष विषय -वस्तु ही उसके प्रकाश के द्वारा प्रकाशित हो सकेगी। वहां तो केवल शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति होती है। विषय -वस्तु मिट जाती है, और आत्मा समग्र रूप से खिल जाती है। अब कहीं कोई विषय-वस्तु नहीं बच रहती है -और इसलिए कोई विषय भी नहीं बचता है। दृश्य और द्रष्टा दोनों ही मिट जाते हैं, केवल चैतन्य मात्र रह जाता है। किसी विशेष के प्रति चैतन्य नहीं शेष रह जाता है, बस चैतन्य मात्र रह जाता है। तुम चैतन्य हो ही।
मैं तुम्हें इसे अलग ही आयाम से समझाना चाहूंगा, जिसे समझना शायद कहीं ज्यादा आसान होगा। अगर तुमने कभी प्रेम किया होगा, तो तुम जानते होगे कि जब तुम प्रेम करते हो तब तुम प्रेमी नहीं होते. तुम प्रेम ही हो जाते हो। ऐसा नहीं कि इसके लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। जब तुम कर्ता नहीं रह जाते हो, तो फिर कैसे- तुम स्वयं को प्रेमी कह सकते हो? सही मायने में तुम प्रेम ही हो जाते हो।
जब लोग मेरे पास आते हैं और मैं उनकी आंखों में छिपी हई किसी बड़ी आशा को देखता हैं तो मैं उनसे ऐसा नहीं कहता हूं कि तुमसे बहुत आशा है। मैं कहता हूं 'तुम से ही एकमात्र आशा है।' और थोड़ा समझना इस भेद को। जब कोई किसी से कहता है कि 'तम से बड़ी आशाएं है।' तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन अगर उससे कहो कि तुम से ही एकमात्र आशा है तो इस बात का बड़ा मूल्य होता है, बड़ा महत्व होता है। जब तुम किसी से कहते हो, तुम से बड़ी आशा है, तो इसका मतलब होता है कि उस आदमी का उपयोग तुम अपनी किसी आकांक्षापूर्ति के लिए करना चाहते हो। जैसे कि एक पिता अपने बेटे से कहता है, 'तुम से बड़ी आशाएं हैं, तो उसका मतलब है कि मैं धनवान होना चाहता था, लेकिन मैं नहीं हो सका। तुम धनवान बन सकते हो-मुझे तुम से बड़ी आशाएं हैं।' यह पिता की आकांक्षा है, वह समझ रहा है कि यह आकांक्षा बेटे के दवारा पूरी हो सकती है।
जब मैं तुमसे कहता हूं कि तुमसे आशा है, तो मेरे पास ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है जिसे मैं तुम्हारे दवारा पूरी करना चाहता है। मैं तो बस कुछ कह देता हं इसका मेरे साथ कोई लेना-देना नहीं है। मैं तो अपने आप में परितृप्त हूं। मैं किसी के माध्यम से किसी प्रकार की परितृप्ति पाने की कोई आकांक्षा नहीं कर रहा है। जब मैं कहता हं, 'तुमसे आशा है, तो मैं तुम्हारी एक वास्तविकता, एक