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पृथ्वी की नहीं होती है। सूर्य चंद्र में समाहित हो जाता है, चंद्र सूर्य में समाहित हो जाता है, और व्यक्ति शांत हो जाता है तब व्यक्ति अपने में प्रतिष्ठित रहता है, उसके भीतर कहीं कोई कंपन नहीं होता, फिर कोई विशेष उद्देश्य नहीं रह जाता, और न ही किसी तरह की कोई आकांक्षा शेष रह जाती
है।
और जब हारा की क्रियाशीलता को अनुभव करना संभव हो और जब सूर्य –ऊर्जा हारा के माध्यम से रूपांतरित हो जाती है, तब फिर स्वयं के भीतर बहुत सी चीजें देखी जा सकती हैं। स्वयं के भीतर के पूरे सौर-मंडल को और भीतर के छिपे हुए तारों को देखा जा सकता है। यह तारे कैसे होते हैं? हमारे भीतर का केंद्र तारे ही होते हैं।
अंतस आकाश का प्रत्येक केंद्र एक तारे की तरह होता है, और प्रत्येक केंद्र को जानने के लिए संयम को वहां प्रतिष्ठित करना जरूरी होता है, क्योंकि प्रत्येक तारे के पीछे कई रहस्य छिपे होते हैं। तब वे रहस्य उदघटित हो जाते हैं। व्यक्ति एक विराट पुस्तक है -सब से बड़ी पुस्तक है -और जब तक व्यक्ति स्वयं को ही नहीं पढ़ लेता है तब तक शेष सभी पढ़ाई व्यर्थ हैं।
जब सुकरात जैसे लोग कहते हैं कि स्वयं को जानो, तो उनका यही अर्थ होता है। उनका अर्थ होता है कि तुम्हें तुम्हारे अंतर – अस्तित्व के संपूर्ण जगत को जान लेना है, उसके प्रत्येक अंश को जान लेना है। स्वयं के प्रत्येक कोने -कोने को देख लेना है, उसे प्रकाशित कर लेना है, और तब व्यक्ति स्वयं को जान सकेगा कि वह क्या है –व्यक्ति एक ब्रह्मांड है, उतना ही असीम और विशाल जितना
कि बाहर का ब्रह्मांड है, उससे भी ज्यादा विशाल क्योंकि व्यक्ति उसके प्रति जागरूक भी होतो है, क्योंकि व्यक्ति केवल जीवित ही नहीं होता, बल्कि यह, भी जानता है कि वह जीवित है, क्योंकि वह जीवन के प्रति साक्षी भी हो सकता है।
धुवे तद्गतिज्ञानम्।
'ध्रुव-नक्षत्र पर संयम संपन्न करने से तारों -नक्षत्रों की गतिमयता का ज्ञान प्राप्त होता है।'
और हमारे अंतर- अस्तित्व का ध्रुव तारा कौन सा है? ध्रुव तारा बहुत प्रतीकात्मक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यही समझा जाता है कि ध्रुव तारा ही एकमात्र ऐसा तारा है जो पूर्णतया गति विहीन है, उसमें कोई गति नहीं है, वह थिर है। लेकिन यह बात सच नहीं है। उसमें गति है, लेकिन उसकी गति बहुत धीमी होती है। लेकिन फिर भी यह बहुत प्रतीकात्मक है हमको अपने भीतर कुछ ऐसा खोज लेना है जो कि गति विहीन हो, जिसमें किसी प्रकार की गति न हो, परी तरह थिर हो। वही हमारा स्वभाव है, केवल वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है, हमारा सच्चा स्वरूप है. ध्रुवतारे जैसा-गति विहीन, पूर्णरूपेण गति विहीन। क्योंकि जब भीतर कहीं कोई गति नहीं होती है, तब शाश्वतता होती है; जब गति होती है, तो समय भी होता है।