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टूटकर गिर जाता है तो वह फिर से खिलने की तैयारी कर रहा होता है। इसी तरह सष्टि के कम में सृजन फिर असृजन, फिर सृजन चलता रहता है, इसी प्रक्रिया द्वारा सृष्टि चलती रहती है। इसे ही पतंजलि प्रकृति कहते हैं। प्रकृति शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता है। प्रकृति शब्द का अर्थ केवल सृजन ही नहीं है. इसमें सृजन और अ -सृजन दोनों सम्मिलित हैं।
प्रकृति में सभी कुछ अभिव्यक्त होता है, फिर प्रकृति में ही वापस चला जाता है, उसी में लुप्त हो जाता है; लेकिन फिर भी वह प्रकृति में मौजूद रहता है। वह फिर से लौट आता है। जैसे गर्मी
आती है, चली जाती है, वर्षा आती है, चली जाती है, सर्दी आती है, चली जाती है, इसी तरह से चक्र घूमता रहता है। प्रकृति में सभी कुछ गतिमान है। फूल खिलते हैं, मुझ जाते हैं; बादल आते हैं, चले जाते हैं-संसार का चक्र चलता ही चला जाता है।
हर चीज की दो अवस्थाएं हैं, व्यक्त और अव्यक्त। लेकिन तुम उन दोनों के पार हो। तुम न तो व्यक्त हो और न ही अव्यक्त हो, तुम तो साक्षी हो। निरोध परिणाम' के द्वारा, दो विचारों के बीच के अंतराल के दवारा उसकी पहली झलक मिल सकती है। फिर उन विचारों के बीच के अंतराल को बढ़ाते जाना, बढ़ाते जाना। और हमेशा इस बात का खयाल रखना, कि जब कभी विचारों के बीच के दो अंतराल जुड़ जाते हैं, तो वे एक हो जाते हैं। और जब दो अंतराल आपस में मिलते हैं, तो वे दो वस्तुओं की तरह नहीं होते हैं, वे शून्यता की भांति होते हैं। और शून्य कभी भी दो नहीं हो सकते। जब दो शून्यों को निकट लाओ, तो वे एक हो जाते हैं, वे एक -दूसरे में मिल जाते हैं। क्योंकि दो शून्य दो अलग – अलग शून्यों की भांति अपना अस्तित्व नहीं रख सकते। शून्य हमेशा एक ही होता है। चाहे कितने शून्यों को तुम ले आओ-वे आपस में मिलकर एक हो जाएंगे।
इसलिए विचारों के बीच के अंतरालों को, शून्यों को एकत्रित करते जाना, और धीरे - धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी, जिसे पतंजलि ने पहले निरोध कहा है, वही समाधि में परिवर्तित हो जाएगी। 'समाधि' में मन खोने लगता है, मन बिदा होने लगता है. और फिर अंत में वह मिट जाता है और तुम्हारे भीतर एकाग्रता का जन्म हो जाता है। तब पहली बार तुम प्रकृति की सृजन और अ -सृजन की लीला, मन में उठती हुई तरंगों और लहरों, जीवन के सुख -दुख, मन के क्षण – क्षण बदलते भावों, और जीवन की क्षण- भंगुरता के पार जाते हो-तब पहली बार स्वयं की झलक मिलती है। साक्षी का जन्म होता है। तुम साक्षी हो जाते हो।
वह साक्षी ही तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व है। और उसको उपलब्ध कर लेना ही योग का एकमात्र लक्ष्य है।
योग का अर्थ है. यूनिओ मिष्टिका। इसका अर्थ है जुड़ाव, स्वयं के साथ एक हो जाना, स्वयं के साथ जुड़ जाना। और अगर स्वयं के साथ एक हो जाओ, तब अकस्मात इस बात का भी बोध होता है कि