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तो वह कहता, 'मैं कैसे पूरी कर सकता हूं? वही प्रारंभ करता है, वही पूरी भी करे -जब भी वह चाहे पूरी करे। मैं तो असहाय हूं, अवश हूं। किसी दिन जाब वह मुझ पर आविष्ट हो जाता है, तो कुछ शब्द, कुछ पंक्तियां उतर आती हैं और उसमें अगर कहीं केवल एक पंक्ति की भी कमी रह गयी तो, मैं उसे न जोड़-गा, क्योंकि वह एक पंक्ति पूरी कविता को ही नष्ट कर देगी। तब सात पंक्तियां तो आकाश की होंगी और एक पृथ्वी की होगी? नहीं, वह एक पंक्ति भी आकाश की ओर जो पंख फैले हैं, उन्हें भी काट देगी। मैं प्रतीक्षा करूंगा। जब उसे ही कोई जल्दी नहीं है, तो मैं कौन होता हं बीच में चिंता करने वाला?'
ऐसा होता है एक सच्चा रचनाकार। एक सच्चा रचनाकार तो रचना करने वाला होता ही नहीं है। वह तो अस्तित्व के हाथों एक माध्यम बन जाता है, वह तो उसी की शक्ति से संचालित होता है। परमात्मा की परम शक्तियां उसे संचालित करती हैं, परमात्मा का असीम अपार रूप ही उसके प्राणों पर छा जाता है। वह तो उसका संदेशवाहक बन जाता है। वह कुछ बोलता है, लेकिन शब्द उसके अपने नहीं होते हैं। वह चित्र बनाता है, लेकिन रंग उसके अपने नहीं होते। वह गीत गाता है, लेकिन स्वर उसके अपने नहीं होते। वह नृत्य करता है, लेकिन वह नृत्य ऐसे करता है जैसे कि कोई आंतरिक प्रेरणा उसे चला रही हो, उसके द्वारा कोई और ही नृत्य कर रहा हो।
तो यह निर्भर करता है। प्रश्न यह है कि अगर तुम्हारा अहंकार ध्यान में विलीन हो जाता है तो तुम्हारे कार्य का क्या होगा?
अगर वह व्यवसाय होगा, तो वह खो जाएगा। और अच्छा होगा कि वह खो ही जाए। क्योंकि किसी भी आदमी को व्यवसायिक तो होना ही नहीं चाहिए। जो कुछ कार्य भी तुम कर रहे हो, उससे तुमको प्रेम होना चाहिए; अन्यथा तो वह कार्य विनाशकारी हो जाता है। तब तो काम एक बोझ हो जाता है, किसी न किसी भांति तम उसे खींचे चले जाते हो और तब पूरा का पूरा जीवन नीरस और उबाऊ हो जाता है। तब जीवन में एक खालीपन होता है, और हमेशा अतृप्ति छाई रहती है। पहली तो बात तुम ऐसा कार्य कर रहे होते हो जिसे तुमने कभी न करना चाहा था। तब वह कार्य तुम्हारे ऊपर जबर्दस्ती हो जाती है। वह कार्य तुम्हारे लिए आत्मघाती हो जाता है -तुम उस कार्य के माध्यम से धीरे – धीरे स्वयं की ही हत्या कर रहे होते हो, अपने ही जीवन में जहर घोल रहे होते हो। किसी को भी व्यवसायिक नहीं होना चाहिए। तुम को कार्य से प्रेम होना चाहिए, काम ही तुम्हारी पूजा और प्रार्थना होना चाहिए काम तुम्हारा धर्म होना चाहिए व्यवसाय नहीं।
तुम्हारे और तुम्हारे काम के बीच एक प्रीति संबंध होना चाहिए। जब तुमने सच में ही तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल काम को पा लिया होता है, तो वह प्रीति संबंध जैसा हो जाता है। तब ऐसा नहीं होता कि काम तुम्हें करना पड़ता है। तब ऐसा नहीं होता कि तुम्हें काम करने के लिए स्वयं पर जबर्दस्ती करनी पड़ती है। जब काम तुम्हारे अनुकूल होता है, तब तुम्हारे काम करने की शैली ही बदल जाती है, तुम्हारा काम करने का भाव और ढंग ही बदल जाता है। तब तुम्हारे पैरों में एक अलग ही नृत्य की