________________ करें। अगर कोई हमारा अपमान कर देता है. हम क्रोधित हो जाते हैं। हम प्रतिक्रिया करते हैं, हम कुछ न कुछ तो करते ही हैं। लेकिन अगर हम सजग हों, जाग्रत हों, तो बस हम साक्षी रह सकते हैं, हम क्रोधित नहीं होंगे। तब हम केवल साक्षी बने रह सकते हैं। तब हम कुछ भी नहीं करें, किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करें। बस शांत, स्वयं में थिर और केंद्रित रहें। फिर दूसरा कोई भी हमको अशांत नहीं कर सकता। जब हम दूसरे के द्वारा अशांत हो जाते हैं और जो प्रतिक्रिया करते हैं, तब क्रियामान कर्म संचित कर्म के गहन कुंड में जा गिरता है। तब हम फिर से कर्मों का संचय करने लगते हैं, और तब वे ही कर्म हमारे भविष्य के जन्मों के लिए एकत्रित होते चले जाते हैं। अगर हम किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं करें, तो पिछले कर्म धीरे -धीरे समाप्त होने लगते हैं। उदाहरण के लिए, अगर मैंने किसी जन्म में किसी आदमी का अपमान किया है, तो अब इस जन्म से उसने मेरा अपमान कर दिया, तो बात समाप्त हो गयी, हिसाब –किताब बराबर हो गया। अगर व्यक्ति जागरूक हो तो वह प्रसन्नता अनुभव करेगा कि चलो कम से कम यह हिस्सा तो पूरा हुआ। अब वह थोड़ा मुक्त हो गया। एक बार एक आदमी बुद्ध के पास आया और उनका अपमान करके चला गया। बुद्ध जैसे बैठे थे, वैसे ही शांत बैठे रहे। वह जो भी कह रहा था, बुद्ध ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनते रहे। और जब थोड़ी देर बाद वह शांत हो गया, तो बुद्ध ने उस आदमी को धन्यवाद दिया। उस आदमी को तो कुछ समझ में नहीं आया। वह बुद्ध से बोला, क्या आप पागल हैं, आपका दिमाग तो ठीक है न? मैंने आपका इतना अपमान किया, आपको इतनी पीड़ा पहुंचाई, और आप मुझको धन्यवाद दे रहे हैं? बुद्ध बोले - ही, क्योंकि मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने कभी अतीत में तुम्हारा अपमान किया था। और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा ही करता था, क्योंकि जब तक तुम आ न जाओ मैं पूरी तरह से मुक्त न हो सकता था। तुम ही एकमात्र अंतिम आदमी बचे थे, अब मेरा लेन -देन समाप्त हआ। यहां आने के लिए तुम्हारा धन्यवाद। तुम शायद और थोड़ी देर से आते, या शायद तुम इस जन्म में आते ही नहीं, तब तो मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा करनी ही पड़ती। और मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि अब बहुत हो चुका। मैं अब किसी नयी श्रृंखला का निर्माण नहीं करना चाहता हूं। इसके बाद आता है क्रियामान कर्म, जो दिन –प्रतिदिन का कर्म है, जो कहीं संचित नहीं होता, जो कर्मों के जाल में वृद्धि नहीं करता, सच तो यह है, अब पहले की अपेक्षा कर्मों के जाल में थोड़ी कमी आ जाती है। और यही सच है प्रारब्ध कर्म के लिए -इसी पूरे जीवन में कर्मों का जाल कट जाता है। अगर इस जीवन में प्रतिक्रिया करते ही चले जाओ, तो फिर कर्मों का जाल और बढ़ता चला जाता है। और इस तरह से फिर कर्मों के जाल की जंजीरों पर जंजीरें बनती चली जाती हैं, और व्यक्ति को फिर -फिर बंधनों में बंधना पड़ता है। पूरब में जो मुक्ति की अवधारणा है, उसे समझने की कोशिश करो। पश्चिम में मुक्ति का अर्थ है राजनीतिक मुक्ति। भारत में हम राजनीतिक मुक्ति की कोई बहुत ज्यादा फिकर नहीं लेते, क्योंकि