________________ कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता है। दूसरा सूत्रः 'मैत्री पर संयम संपन्न करने से या किसी अन्य सहज गण पर संयम संपन्न करने से उस गुणवत्ता विशेष में बड़ी सूक्ष्मता आ मिलती है। सर्वप्रथम तो जागरूकता - और ठीक उसके बाद आता है द्वितीय चरण. अपने संयम को, प्रेम पर, करुणा पर ले आना। मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा एक बार ऐसा हुआ कि एक बौद्ध भिक्षु, जिसका नाम तामिनो था, वह ध्यान करता ही गया, करता ही गया, उसने बहुत कठोर श्रम किया और वह सतोरी को उपलब्ध हो गया -संयम की अवस्था को उपलब्ध हो गया। और उस अवस्था में उसे किसी बात का, किसी चीज का होश न रहा जब व्यक्ति होशपूर्ण होता है तो उसे किसी विशेष चीज के प्रति होश नहीं रहता। वह केवल होश के प्रति ही होशपूर्ण होता है। वैसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो होश भी विषय -वस्तु की तरह प्रतीत होने लगता है। नहीं, इसे ऐसा कहें कि व्यक्ति किसी विशेष के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है -वह बस होश ही रह जाता है। .......और तब तामिनो किसी विशेष बात या किसी विशेष चीज के प्रति होशपूर्ण न रहा और उसकी आत्मा किसी स्वरूप की भांति न रही। और यह अवस्था शांतिपूर्ण अवस्था के भी पार की थी, और वह हमेशा के लिए उसी अवस्था में रहकर आनंदित था. स्मरण रहे, जब कोई व्यक्ति संयम को उपलब्ध हो जाता है, तो वह सदा -सदा के लिए उसी अवस्था में रहना चाहता है, वह उससे बाहर नहीं आना चाहता –लेकिन यही यात्रा का अंत नहीं है। यह तो अभी केवल आधी यात्रा ही हुई। जब तक समाधि प्रेम नहीं बन जाती है, जब तक कि व्यक्ति अपने भीतर के खजानों को बाहर के विराट जगत में बाट नहीं देता है, जब तक कि अपनी समाधि के आनंद को दूसरों के साथ बांट नहीं लेता, तब तक वह स्वयं को कंजूस ही प्रमाणित कर रहा होता है। समाधि लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य प्रेम है। तो जब कभी यह तुमको होगा, या तुम में से किसी को भी होगा, तो तुम भी उस अवस्था में पहुंचोगे जहां से फिर कोई भी बाहर नहीं आना चाहता है। वह इतना सौंदर्यपूर्ण और आनंददायी होता है कि फिर उससे बाहर आने की कौन फिकर करता है?