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हमें तो बस दूसरे की ओर स्वयं को केंद्रित करना है। गहन मौन और शाति से दूसरे पर ध्यान देना है, दूसरे की तरफ देखना है। और तुम पाओगे कि उसका मन तुम्हारे सामने एक पुस्तक की भांति खुलता चला जा रहा है। लेकिन फिर भी ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर एक बार ऐसा हो जाता है, तो और भी बहुत सी संभावनाएं इसके साथ-साथ चली आती हैं। फिर दूसरे के विचारों में हस्तक्षेप किया जा सकता है. दूसरे के विचारों को निर्देशित किया जा सकता है। फिर हम दूसरे के विचारों में प्रवेश करके अपने विचारों को वहा प्रक्षेपित कर सकते हैं। फिर दूसरे के मन को अपनी इच्छा के अनुसार चलाया जा सकता है और सामने वाला व्यक्ति कभी नहीं समझ पाएगा कि उसके मन को दूसरे के दवारा परिचालित किया जा रहा है। वह तो यही समझेगा कि वह उसके स्वयं के ही विचार हैं और वह अपने ही विचारों और धारणाओं के अनुसार जी रहा है। लेकिन इन शक्तियों का उपयोग नहीं करना है।
'लेकिन संयम द्वारा आया बोध उन मानसिक तथ्यों का ज्ञान नहीं करवा सकता जो कि दूसरे के मन की छवि-प्रतिछवि को आधार देते हैं, क्योंकि वह बात संयम की विषय-वस्तु नहीं होती है।'
हम किसी के भी मन में चलते विचारों की प्रतिछवि को देख सकते हैं -लेकिन उसके विचारों की प्रतिध्वनि को देख लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उसके अभिप्राय को भी समझ सकेंगे। अभिप्राय को समझने के लिए अभी और भी गहरे जाना होगा। उदाहरण के लिए, हम किसी को देखते हैं और साथ-साथ हम उसके मन के भीतर की वैचारिक प्रतिछवि को भी देख सकते हैं। जैसे उदाहरण के लिए, चांद की एक प्रतिछवि होती है। सफेद बादलों के बीच घिरे हुए पूर्णिमा के सुंदर चांद की एक प्रतिछवि होती है। हम चंद्रमा की प्रतिछवि को देख सकते हैं, यह तो ठीक है, लेकिन चंद्रमा की छवि का अस्तित्व क्यों है उसके प्रयोजन के बारे में हमें कुछ पता नहीं होता है। अगर कोई चित्रकार सफेद बादलों से घिरे हए पूर्णिमा के चांद को देखेगा तो उसके देखने का नजरिया, उसके देखने का ढंग अलग होगा, और अगर कोई प्रेमी देखेका तो उसके देखने का ढग कुछ अलग होगा और अगर कोई वैज्ञानिक देखेगा तो उसके देखने का ढंग कुछ और ही होगा।
तो किसी के विचारों का अभिप्राय क्या है, उसके विचारों की प्रतिछवि वहां क्यों मौजूद है -केवल उस छवि को देखने से हम उसके पीछे छिपे अभिप्राय को नहीं पहचान सकते हैं। क्योंकि विचारों को बनाने वाली प्रेरणा, छवि की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होती है। छवि तो स्थूल होती है। वह तो केवल मन के पर्दे पर प्रतिबिंबित होती है, उसको देखा जा सकता है। लेकिन वह छवि होती क्यों है? वह मन के पर्दे पर क्यों प्रतिबिंबित होती है? चांद के बारे में व्यक्ति सोचता ही क्यों है –फिर चाहे वह चित्रकार हो, कवि हो, या कोई पागल आदमी ही क्यों न हो। लेकिन किसी के विचारों को केवल छिपकर देख लेने मात्र से हमें उसके उददेश्य का पता नहीं चल सकता है। उसके विचारों के अभिप्राय को, उददेश्य को समझने के लिए हमें स्वयं में और भी गहरे जाना होगा।