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भी पुनरावृत्ति की जा सकती हो, जिस किसी चीज को दोहराया जा सकता हो; उसे मन समझ सकता है उसे समझना मन के लिए आसान होता है।
लोगों को मुझमें विरोधाभास दिखाई देता है, क्योंकि मैं किसी चीज को दोहराता नहीं हूं। वे मुझ में विरोधाभास देखते हैं, क्योंकि उनका मन एक तरह के अरस्तुगत तर्क में प्रशिक्षित हो चुका है। अरस्तु का तर्क कहता है कि या तो काला होता है या सफेद। अगर कोई चीज सफेद है तो वह काली नहीं हो सकती है, अगर वह काली है तो सफेद नहीं हो सकती है। अरस्तू का तर्क कहता है कि या तो वह काली ही हो सकती है, या वह सफेद ही हो सकती है। ऐसा ही होता है, और यही तर्क सभी वैज्ञानिकों के मन का आधार है।
धार्मिक मन कहता है कि वह दोनों है. सफेद काला भी होता है, और काला सफेद भी होता है। इससे अन्यथा कुछ हो भी नहीं सकता, क्योंकि धर्म किसी भी चीज को इतनी गहराई में जाकर देखता है कि वहा पर दो विपरीत तत्व एक हो जाते हैं।
जीवन में मृत्यु भी छिपी होनी चाहिए, और मृत्यु में जीवन भी छिपा होना चाहिए। क्योंकि धार्मिक चेतना को यह बात स्पष्ट दिखाई देती है कि वे दोनों बातें कहीं न कहीं एक दूसरे में मिल रही हैं - भीतर वे तुम में मिली ही हुई हैं। कुछ ऐसा होता है जो तुम में मर रहा होता है, और कुछ हमेशा उत्पन्न हो रहा होता है। हर पल मैं तुम्हें मरते हुए और जन्म लेते हुए देखता हूं। तुम हमेशा एक जैसे नहीं रहते हो। हर पल तुम्हारे भीतर कुछ मिट रहा होता है, और हर पल कुछ नया अस्तित्व में प्रकट हो रहा होता है। लेकिन चूंकि तुम उसके प्रति जागरूक नहीं हो, इसलिए तुम उसको नहीं देख पाते हो। क्योंकि तुम उसको नहीं देख पाते हो, इसलिए वह हमेशा एक जैसा ही मालूम पड़ता है।
धर्म का भरोसा किन्हीं विरोधाभास में नहीं है –विरोधाभास हो नहीं सकता क्योंकि अस्तित्व एक है। धर्म का यह विश्वास है और धर्म ऐसा देखता है कि कहीं कोई विरोध नहीं है। अगर कोई विरोध होता भी है तो वह सहयोगी होता है, विपरीत नहीं, वे एक-दूसरे के लिए पूरक होते हैं, क्योंकि अस्तित्व अद्वैत है, एक है। जीवन मृत्यु से अलग नहीं हो सकता, और रात दिन से अलग नहीं हो सकती। गर्मी सर्दी से अलग नहीं हो सकती और वृद्धावस्था बचपन से अलग नहीं हो सकती। बचपन ही वृद्धावस्था में बदल जाता है, रात ही दिन में बदल जाती है, दिन ही रात में बदल जाता है। इस अस्तित्व में सही और गलत, ही और नहीं, जैसा कुछ भी नहीं है, वे दोनों साथ-साथ हैं। वे एक ही रेखा पर खड़े हुए दो बिंदु हैं-वें दोनों विपरीत छोरों पर हो सकते हैं, लेकिन उन्हें जोड़ने वाली रेखा एक ही है।
तो जब कभी कोई धार्मिक व्यक्ति संसार में जन्म लेता है, तो वह उस ढंग से सुसंगत नहीं हो सकता, जैसा कि कोई वैज्ञानिक हो सकता है। जबकि एक धार्मिक व्यक्ति में कहीं ज्यादा गहरी सुसंगति होती है। वह सुसंगति सतह पर दिखाई नहीं देती है, वह उसके अस्तित्व में गहरे में होती है।