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मैं कोई दार्शनिक नहीं हैं। और मैं तुम्हारे सामने किसी सिद्धांत को प्रमाणित करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं और न ही मैं यहां तुम्हारे सामने किसी सिद्धांत को प्रमाणित करने के लिए बोल रहा हूं। प्रमाणित करने को कुछ है नहीं। सत्य तो मौजूद ही है, वह तो तुम्हें मिला ही हुआ है। धर्म को कुछ भी प्रमाणित नहीं करना है; धर्म के पास कोई सिद्धांत इत्यादि नहीं हैं। वह तो केवल जो पहले से उपलब्ध ही है, उसे देखने -समझने का मार्ग बता देता है।
मैं तुमसे रोज-रोज बोले चला जाता हं –ऐसा नहीं है कि मेरे पास भी कोई सिद्धांत है। अगर मेरे पास भी कोई सुनिश्चित सिद्धांत होता, तो फिर मैं भी दूसरों जैसा ही हो जाऊंगा। फिर उनमें और मुझ में कोई भी भेद न होगा। फिर तो मैं हमेशा यही देखता रहूंगा कि कोई बात मेरे सिद्धांत के अनुकूल बैठ रही है या नहीं. अगर वह अनुकूल नहीं बैठ रही है, तो मैं उसे छोड़ दूंगा।
लेकिन मेरे पास कोई बना-बनाया सिद्धांत नहीं है। हर चीज मेरे अनुकूल, होती है। अगर मेरा कोई सिद्धांत होता, तब तो मुझे अपने सिद्धांत की जांच पड़ताल करनी पड़ती। तब तो फिर मेरे लिए सत्य दोयम हो जाता और सिद्धांत प्राथमिक हो जाता। फिर तो अगर सत्य सिद्धांत के अनुकूल बैठता, तब तो ठीक, अगर वह अनुकूल नहीं बैठता, तो मुझे उसकी उपेक्षा करनी पड़ती।
मेरा कोई सिद्धांत नहीं है। प्रत्येक सत्य, सत्य होने मात्र से ही, मेरे अनुकूल होता है –पूर्ण रूप से मेरे अनकूल होता है। केवल थोड़े से लोग ही इस बात को समझ पाएंगे। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं। अगर दूसरे लोग मुझमें विरोधाभास देखते हैं, तो उनके संस्कार अरस्तु के हैं। यहां पर मेरा पूरा का पूरा प्रयास तुम्हारी जड़ता को पिघलाने में मदद देने का है, जिससे कि तुम्हारा जड़ ढांचा गिर जाए और तुम विपरीत को भी पूर्ण की भांति देख सको। अगर तुम सच में ही मुझसे प्रेम करते हो तो शीघ्र ही तुम इसे समझ जाओगे, क्योंकि हृदय और प्रेम किसी विरोधाभास को नहीं जानते हैं। अगर ऊपर सतह पर कोई विरोध होता भी है, तो हृदय जानता है कि कहीं गहरे में संगति होनी ही चाहिए। यह विरोध कहीं न कहीं गहरे में मिल रहे होंगे, यह विरोध भीतर किसी न किसी ऐसी चीज से अवश्य जुड़े हुए होंगे जो विरोध के पार होती है।
मैं तो अद्वैत हूं। अगर तुम मुझे ध्यान से देखो, अगर तुम मुझे प्रेम करते हो, तो तुम उस अद्वैत को
सकते हो। अगर एक बार मेरे अद्वैत से तुम्हारी पहचान हो जाए, एक बार तुम उसे देख लो, तो जो कुछ भी मैं कहता हूं वह उस 'अद्वैत' से ही आ रहा है। तब तुम्हें उसमें कहीं कोई विरोध दिखाई नहीं पड़ेगा, एक संगति दिखाई पड़ेगी। चाहे बदधि से, तर्क से यह बात तुम्हें समझ में आए या नहीं, सवाल उसका नहीं है। लेकिन हृदय के पास अपनी एक समझ होती है, और वह समझ बुद्धि से, तर्क से कहीं ज्यादा गहरी होती है।
वे लोग जो मेरे प्रेम में नहीं हैं, वे लोग जो मेरे प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं, वे लोग जो गहरे में मेरे साथ नहीं जुड़े हैं, वे लोग जो अज्ञात की यात्रा में मेरे साथ नहीं चल रहे हैं, ऐसे लोग जब मुझे सुनते हैं, तब